SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काव्यलिङ्गालङ्कारः यथा-वावपुःप्रादुर्भावादनुमितमिदं जन्मनि पुरा पुरारे ! न कापि कचिदपि भवन्तं प्रणतवान् | -- नमन्मुक्तः संप्रत्यहमतनुरग्रेऽप्यनतिमा. नितीश ! क्षन्तव्यं तदिदमपराधद्वयमपि ॥ अत्र तावदपराधद्वयं समर्थनीयम् , अस्पष्टार्थत्वात् । तत्समर्थनं च पूर्वापरजन्मनोरनमनाभ्यां वाक्यार्थभूताभ्यां क्रियते । अत्र द्वितीयवाक्यार्थेऽतनुत्वमेकपदार्थो हेतुः । अत्रापि संप्रति 'नमन्मुक्तः' इति वाक्यार्थोऽनेकपदार्थो वा हेतुः । कचित्परस्परविरुद्धयोः समर्थनीययोरुभयोः क्रमादुभौ हेतुभावं भजतः ।। यथा असोढा तत्कालोल्लसदसहभावस्य तपसः __कथानां विश्रम्भेष्वथ च रसिकः शैलदुहितुः । प्रमोदं वो दिश्यात् कफ्टबटुवेषापनयने त्वराशैथिल्याभ्यां युगपदभियुक्तः स्मरहरः ।। कभी कभी किसी समर्थनीय उक्ति के समर्थन के लिए वाक्यार्थ का प्रयोग किया जाता है तथा उसके लिए पुनः किसी पदार्थ को हेतुरूप में उपन्यस्त किया जाता है। जैसे हे त्रिपुर दैत्य के शत्रु महादेव, इस जन्म में पुनः शरीर ग्रहण करने के कारण मैंने यह अनुमान किया है कि पिछले जन्म में मैंने कभी भी, कहीं भी आपको प्रणाम नहीं किया था। अब इस जन्म में मैं तुम्हें प्रणाम कर रहा हूँ, इसलिए मैं मुक्त हो चुका हूँ (मेरा मोक्ष निश्चित है)। अगले जन्म में भी शरीर ग्रहण न करने के कारण मैं आपको प्रणाम न कर सकूँगा। हे महादेव, मेरे इस अपराधद्वय को क्षमा करें। ___ यहाँ 'अपराधद्वय' का वर्णन किया गया है। यह 'अपराधद्वय' समर्थन सापेक्ष है, क्योंकि इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है। इसका समर्थन पुराने जन्म तथा भावी जन्म के अनमन (प्रणाम न करने रूप) वाक्यार्थ के द्वारा किया गया है। यहाँ द्वितीय वाक्याथ में 'अतनुत्व' (शरीर ग्रहण न करना) एकपदार्थ हेतु है। यहीं अब 'प्रणाम करने के कारण मेरा मोक्ष हो चुका' यह वाक्यार्थ या अनेकपदार्थ हेतु है। कहीं कहीं परस्परविरुद्ध दो समर्थनीय अर्थों के लिए क्रम से समर्थक हेतु (उक्ति) का प्रयोग पाया जाता है, जैसे निम्न पद्य में शिव ब्रह्मचारी के वेष में पार्वती की परीक्षा लेने आये हैं। वे पार्वती के तत्कालीन असह्य तप को देख कर उसे सहने में असमर्थ हैं ( अतः यह चाहते हैं कि शीघ्रातिशीघ्र अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर दें)। दूसरी ओर वे हिमालय की पुत्री पार्वती की विश्वस्त बातचीत में रसिक हैं (इसलिए अपनी वास्तविकता छिपाये रखना चाहते हैं)। इस प्रकार कपट से ब्रह्मचारी-वेष को हटाकर अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट करने में स्वरा तथा शिथिलता से आक्रान्त कामदेव के शत्रु (शिव) भाप लोगों को सुख प्रदान करें। इस पप में एक ओर ब्रह्मचारी-वेष को हटाने में शीघ्रता, दूसरी ओर उसके हटाने में
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy