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________________ [ २६ ] बराहः कल्याणं वितरतु स वः कल्पविरमे, विनिर्धन्वनौदन्वतमुदकमुमुदवहत् । खुरापातत्रुव्यरकुलशिखरिकूटप्रविलुठ छिलाकोटिस्फोटस्फुटघटितमंगल्यपटहः । प्रलयकाल में समुद्र के जल को हिलाते, पृथ्वी को धारण करते, वे वराह भगवान् ; जिनके खुरपुटों की चोट से कुलपर्वतों की चोटियों की शिलाओं के अग्रभाग के चूर्ण विचूर्ण होने से मंगलपटह की ध्वनि पैदा की गई है ; आप लोगों को कल्याण प्रदान करें। इस पथ में एक और अनुप्रास नामक शब्दालंकार है, दूसरी ओर निदर्शना नामक अर्थालंकार । अतः यह उभयचित्र काव्य है। यद्यपि इस पद्य में कवि का वराहविषयक रतिभाव (व्यंग्यार्थ) व्यंजित होता है, तथापि वह नगण्य है तथा वास्तविक चारुता उक्त अलंकारों की ही है । अतः वाच्यार्थ प्रधान होने के कारण यह चित्रकाव्य है। अप्पय दीक्षित के कुवलयानन्द का अलंकारशास्त्र के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस ग्रन्थ में अप्पय दीक्षित के पूर्व के प्रायः सभी आलंकारिकों के द्वारा उद्भावित अलंकारों का विवेचन पाया जाता है । कुवलयानन्द में लगभग १३३ अलंकारों का विवरण पाया जाता है, जिसमें चन्द्रालोककार जयदेव के द्वारा निर्दिष्ट सभी अर्थालंकार आ जाते हैं। दीक्षित ने जयदेव या शोभाकर आदि की भाँति कुवलयानन्द में शम्दालंकारों का विवरण नहीं दिया है। न इनका विचार चित्रमीमांसा में ही किया गया है । चित्रमीमांसा में दीक्षित ने बताया है कि शब्दचित्र काव्य-शब्दालंकारप्रधान काव्य-नीरस होता है, अतः कविगण उसे विशेष आदर की दृष्टि से नही देखते, साथ ही शब्दालंकारों के संबंध में विशेष विचारणीय विषय भी नहीं है, इसलिये हमने शब्दालंकारों को छोड़कर यहाँ (चित्रमीमांसा में ) केवल अर्थालंकारों की विस्तृत मीमांसा करने का उपक्रम किया है। ___ 'शब्दचित्रस्य प्रायो नीरसत्वाचात्यन्तं तदाद्रियन्ते कवयः, न वा तन्त्र विचारणीयमतीवोपलभ्यत इति शब्दचित्रांशमपहायाचित्रमीमांसा प्रसन्नविस्तीर्णा प्रस्तूयते।' (चित्रमीमांसा पृ०५) जैसा कि प्रसिद्ध है कुवलयानन्द के अर्थालंकार विचार का उपजीव्य चन्द्रालोक का अर्थालंकार प्रकरण है। अप्पय दीक्षित ने जयदेव के ही लक्ष्यलक्षण इलोकों को लेकर उनपर अपना निजी पल्लवन किया है । जयदेव का चन्द्रालोक अनुष्टुप छन्द में लिखा ग्रन्थ है, जिसके पूर्वार्ध में लक्षण तथा उत्तरार्ध में लक्ष्य ( उदाहरण ) पाया जाता है। चन्द्रालोक के पंचम मयूख में जयदेव ने १०४ अलंकारों का विचार किया है, जिनमें ८ शब्दालंकार हैं-छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास, लाटानुप्रास, स्फुटानुप्रास, अर्थानुप्रास, पुनरुक्तप्रतीकाश, यमक तथा चित्रालङ्कार। इसके बाद ९६ अर्थालङ्कारों का विवेचन पाया जाता है। कुवलयानन्दकार ने इन अलङ्कारों में से कई के नये भेदों की कल्पना की है तथा इनसे इतर १७ नये अलङ्कारों का संकेत किया है। परिशिष्ट में अप्पय दीक्षित ने ७ रसवदादि अलङ्कारों तथा १० प्रमाणाअलङ्कारों को भी अलङ्कार कोटि में माना है । चन्द्रालोककार ने भी सात रसवदादि अलङ्कारों का संकेत किया है, पर वे इसे दूसरों का मत बताते हैं । जिससे पता चलता है, जय देव को इनका अलङ्कारत्व अमीष्ट नहीं।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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