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________________ अल्पालङ्कारः १६७ aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa ४२ अल्पालङ्कारः अल्पं तु सूक्ष्मादाधेयाद्यदाधारस्य सूक्ष्मता । मणिमालोमिका तेऽद्य करे जपवटीयते ॥ ९७ ॥ अत्र मणिमालामय्यूमिका तावदङ्गुलिमात्रपरिमितत्वात्सूक्ष्मा सापि विरहिण्याः करे कङ्कणवत्प्रवेशिता तस्मिन् जपमालावल्लम्बत इत्युक्त्या ततोऽपि करस्य विरहकाश्योदतिसूक्ष्मता दर्शिता । यथा वा यन्मध्यदेशादपि ते सूक्ष्मं लोलाक्षि ! दृश्यते । मृणालसूत्रमपि ते न सम्माति स्तनान्तरे ।। ६७ ॥ प्रशंसा के कारण अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार क्यों नहीं माना जाता, तो इसका समाधान, यह है कि यहाँ अप्रस्तुत (शब्दब्रह्मादि) के साथ ही साथ प्रस्तुत (गुणयशोराशि)का भी वाच्यरूप में अभिधान किया गया है, अतः अप्रस्तुतप्रशंसा नहीं हो सकती। टिप्पणी-नन्वाधारयोः शब्दब्रह्मभुवनत्रयोदरयोरप्रस्तुतत्वेनाप्रशंसनीयस्वात्तदाधिक्य. वर्णनमयुक्तमित्याशङ्कयाह-अलि, न चात्राप्रस्तुतप्रशंसा शङ्कनीया, प्रस्तुतस्याप्यभिधानादिति । ( अलंकार चन्द्रिका) ४२. अल्प अलंकार ९७-अल्प अलंकार अधिक अलंकार का बिलकुल उलटा है। जहाँ आधेय अत्यधिक, सूक्ष्म हो, किंतु कवि आधार को उससे भी सूचम बताये, वहाँ अल्प अलंकार होता है। जैसे, मणिमालामयी अंगूठी आज (विरहदशा के कारण) तुम्हारे हाथ में जपमाला-सी प्रतीत हो रही है। यहाँ मणिमालामयी मुद्रिका अंगुलिमात्र परिमाग की है, अतः अत्यधिक सूक्ष्म है, पर वह सूचम मुद्रिका भी विरहिणी के हाथ में कंकण की तरह प्रविष्ट हो कर जपमाला के रूप में लटक रही है, इस उक्ति के द्वारा कवि ने विरहकृशता के कारण कर को मुद्रिका से भी अधिक सूक्ष्म बताया है। इस प्रकार यहाँ आधार (कर)की सूक्ष्मता सूक्ष्म आधेय (मुद्रिका, ऊर्मिका) से भी अधिक बताई गई है, अतः यहाँ सूक्ष्म अलंकार है। टिप्पणी-इसी का एक उदाहरण हिंदी के रीतिकालीन कवि केशव का यह प्रसिद्ध दोहा है । तुम पूछत कहि मुद्रिके, मौन होति या नाम । कंकन की पदवी दई, तुम बिन या कह राम ॥ (रामचन्द्रिका). अथवा जैसे, हे चंचल नेत्रों वाली सुन्दरि, जो मृणालसूत्र तुम्हारे मध्यदेश से भी अधिक सूक्ष्म दिखाई देता है, वह भी तुम्हारे स्तनों के बीच में अवकाश नहीं पाता ? (तुम्हारे स्तन इतने निबिड़ तथा सघन हैं, परस्पर इतने संश्लिष्ट हैं कि एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म मृणालसूत्र । भी उनके बीच नहीं समा सकता)। __ यहाँ मृणालसूत्र (आधेय) की सूक्ष्मता श्लोक के पूर्वार्ध में उसे मध्यदेश से भी सूचम बता कर वर्णित की गई है। पर उत्तरार्ध में उसके आधार (स्तनान्तर) को उससे भी सूचम बता दिया गया है, अतः यहाँ अल्प अलंकार है। टिप्पणी-सी भाव की एक उक्ति कालिदास के कुमारसंभव में भी पाई जाती है:
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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