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________________ १६६ कुवलयानन्दः पृथ्वाधेयायदाधाराधिक्यं तदपि तन्मतम् । कियद्वाग्ब्रह्म यत्रैते विश्राम्यन्ति गुणास्तव ॥ ९६ ॥ अत्र 'एते' इति प्रत्यक्षदृष्टमहावैभवत्वेनोक्तानां गुणानां 'विश्राम्यन्ति' इत्यसम्बाधावस्थानोक्त्या आधारस्य वाग्ब्रह्मण आधिक्यं वर्णितम् । यथा वा अहो विशालं भूपाल ! भुवनत्रितयोदरम् । माति मातुमशक्योऽपि यशोराशिर्यत्र ते ।। अत्र यद्यप्युदाहरणद्वयेऽपि 'कियद्वाग्ब्रह्म' इति 'अहो विशालम्' इति चाधारयोः प्रशंसा क्रियते, तथापि तनुत्वेन सिद्धवत्कृतयोः शब्दब्रह्मभवनोदरयोर्गुण. यशोराश्यधिकरणत्वेनाधिकत्वं प्रकल्प्यैव प्रशंसा क्रियत इति तत्प्रशंसा प्रस्तुतगुणयशोराशिप्रशंसायामेव पर्यवस्यति ।। ६६ ।। का प्रयोग साभिप्राय है, जो कृष्ण के प्रलयकालीन योगनिद्रागत रूप का संकेत करता है। अतः इसमें परिकरांकुर अलंकार भी है। ___९६-जहाँ विशाल आधेय से भी आधार की अधिकता अधिक बताई गई हो, वहाँ भी अधिक अलंकार ही होता है। जैसे, हे भगवान् , जिस वाणी (वाग्ब्रह्म) में ये तुम्हारे अपरिमित गुण समा जाते हैं, वह शब्दब्रह्म कितना महान् होगा? . यहाँ पर गुणों के साथ 'ये' (एते) का प्रयोग किया गया है। इसके द्वारा गुणों का वैभव प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है, तथा गुण अत्यधिक हैं, किंतु वे गुण भी शब्दब्रह्म में विश्रान्त होते हैं, इस प्रकार वे बिना किसी संकट के मजे से उस आधार (शब्दब्रह्म) में स्थित रहते हैं, इस उक्ति के द्वारा आधारभूत शब्दब्रह्म की अधिकता का वर्णन किया गया है । अतः यहाँ आधार के पृथुल आधेय से भी अधिक वर्णित किये जाने के कारण अधिक अलंकार है। अथवा जैसे, कोई कवि आश्रयदाता राजा की प्रशंसा कर रहा है: हे राजन् , बड़ा आश्चर्य है, इन तीनों लोकों का उदर कितना विशाल है, क्योंकि तुम्हारा अपरिमेय यशःसमूह भी-जो बड़ी कठिनता से समा सकता है-इस भुवनत्रय के उदर में समा जाता है। ___इन दोनों उदाहरणों में यद्यपि कवि ने वाच्यरूप में कियद्वारब्रह्म' तथा 'अहो विशालं' आदि के द्वारा आधार (शब्दब्रह्म और भुवनत्रय) की ही प्रशंसा की है, तथापि शब्दब्रह्म तथा भुवनत्रयोदर को यहाँ अधिक छोटा सिद्ध किया गया है, जिनके छोटे होने पर भी गुण और यशोराशिरूप आधेय समा जाते हैं, यही तो आश्चर्य का विषय है. अब यहाँ शब्दब्रह्म तथा भुवनत्रयोदर की प्रशंसा उन्हें छोटा तथा गुण और यशोराशि को अधिक बना कर ही की गई है, और इस प्रकार उनकी प्रसंसा वस्तुतः गुण तथा यशोराशि की ही प्रसंसा में पर्यवसित हो जाती है।। • इसलिए यदि कोई यह शंका करे कि यहाँ पर शब्दब्रह्मादि अप्रस्तुत की प्रसंसा करना, उनके आधिक्य का वर्णन करना अयुक्त है, तथा यह भी शंका करे कि यहाँ अप्रस्तुत की
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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