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________________ असंगत्यलङ्कारः ३७ असङ्गत्यलङ्कारः विरुद्धं भिन्नदेशत्वं कार्यहेत्वोरसङ्गतिः । विषं जलधरैः पीतं, मूर्च्छिताः पथिकाङ्गनाः ॥ ८५ ॥ ययोः कार्यहेत्वोर्भिन्नदेशत्वं विरुद्धं तयोस्तन्निबध्यमानमसङ्गत्यलङ्कारः । यथात्र विषपान - मूर्च्छ यो भिन्नदेशत्वम् । यथा वा अहो खलभुजङ्गस्य विचित्रोऽयं वधक्रमः । अन्यस्य दशति श्रोत्रमन्यः प्राणैर्वियुज्यते ॥ क्वचिदसाङ्गत्यसमाधाननिबन्धनेन चारुतातिशयः । यथा वा ( नैषध. ३।१०६ ) - अजस्रमारोहसि दूरदीर्घा सङ्कल्पसोपानततिं तदीयाम् । १४६ WA ३७ असंगति अलंकार जाय, ८५ - जहाँ कारण तथा कार्य का दो भिन्न स्थलों में विरुद्ध अस्तित्व वर्णित किया वहाँ असंगति अलंकार होता है। जैसे बादलों ने विष ( जहर, पानी ) पिया, और विदेश गये पथिकों की स्त्रियाँ ( प्रोषितपतिकाएँ ) मूच्छित हो गई । जिन कारण तथा कार्य का भिन्न स्थलों पर होना विरुद्ध होता है, उन कारण कार्य का विरुद्धदेशत्व जहाँ वर्णित किया जाय, वहाँ असंगति अलंकार होता है । जैसे विषपान मूर्च्छा का कारण है, तथा इन दोनों का अस्तित्व एक ही स्थान पर पाया जाता है, जो जहर पीता है, वही मूच्छित होता है । यहाँ विष का पान तो मेघों ने किया है, पर मूति प्रोषितभर्तृकाएँ हो रही हैं, यह कार्य कारण की विरुद्ध भिन्नदेशता है, फलतः यहां असंगति अलंकार है । असंगति अलंकार का यह चमत्कार 'विष' शब्द के श्लिष्ट प्रयोग पर आटत है । अथवा जैसे बड़े आश्चर्य की बात है, दुष्ट व्यक्ति रूपी सर्प का मारने का ढंग बड़ा विचित्र है । यह किसी दूसरे ही के कानों को डसता है, और कोई दूसरा ही व्यक्ति प्राणों से छुटकारा पा जाता है । (दुष्ट व्यक्ति किसी दूसरे के कान भरता है, और नुकसान किसी दूसरे का होता हैइस भाव की प्रतीति हो रही है । कान में साँप के काटने पर वही मरेगा, जिसके कान में काटा गया है, पर दुष्ट भुजंग किसी और के कान में काटता है; मरता है कोई और ही । यह असंगति रूपक अलंकार के चमत्कार पर आटत है, खल पर भुजंगत्व का आरोप करने पर ही असगति वाला चमत्कार प्रतीत होता है, यदि यहां हम केवल यही कहें कि खल कान दूसरे के भरता है, मारा जाता है कोई दूसरा ही, तो असंगति की समस्त चमत्कृति लुप्त हो जायगी, यह सहृदयानुभव सिद्ध है । ) कहीं कहीं दो वस्तुओं की असंगति के समाधान के प्रयोग के द्वारा उक्ति में अधिक चमत्कार पाया जाता है । अथवा जैसे— हंस दमयन्ती से नल की अवस्था का वर्णन कर रहा है । हे दमयन्ति, तुम नल के
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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