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कुवलयानन्दः
भूषापेटी भुवनमधरं पुष्करं पुष्पवाटी शाटीपालाः शतमखमुखाश्चन्दनद्रुर्मनोभूः ॥
अत्र 'यस्य वेदा वाहाः, भुजङ्गमा भूषणानि' इत्यादि तत्तद्वाक्यार्थव्यव स्थितौ वेदत्वाद्याकारेणावगम्या एव वेदादयो व्यासप्रमुख विनेयत्वाद्याकारेणाभिहिताः, परंतु देवतासार्वभौमत्वस्फुटीकरणाय विशेषणविशेष्यभावव्यत्यासेन प्रतिपादिताः । अत्रालङ्कार सर्वस्वकृतापि पर्यायोक्तस्य संप्रदायागतमिदमेव लक्षणमङ्गीकृतं 'गम्यस्यापि भङ्गयन्तरेणाभिधानं पर्यायोक्तम्' इति ।
( महादेव ने त्रिपुरसंहार के समय विष्णु को बाण बनाकर उसे मारा था, इसलिए विष्णु उनके बाण हैं और विष्णु का निवासस्थान क्षीरसागर उनका तूणीर । वेद उनके वाहन हैं तथा व्यासांदि महर्षि वेदों को धारण करते हैं, अतः व्यासादि महर्षि महादेव के वाहन के वाहन हैं। महादेव के आभूषण सर्प हैं, अतः पाताल ( सर्पों का निवासस्थान ) उनकी आभूषणपेटिका है । वे चन्द्रमा के फूल को मस्तक पर चढ़ाते हैं, अतः आकाश उनकी पुष्पवाटिका है। महादेव दिगंबर है, अतः उनकी धोती दिशा है और उसके रक्षक इन्द्रादि दिक्पाल | उन्होंने कामदेव के भस्म को अंगराग के रूप में शरीर पर लगाया है, अतः उनका चंदन कामदेव है । )
यहाँ 'वेद जिन महादेव के वाहन हैं तथा सर्प आभूषण हैं' इत्यादि तत्तत् वाक्यार्थ की प्रतीति वेदादि का प्रयोग करने पर ही हो सकती है, तथा इसी तरह वेदादि व्यास प्रमुख महर्षियों के भी बन्दनीय ( उपास्य ) हैं इस प्रयोग के द्वारा ही हो सकती है, किंतु कवि इस साक्षात् वाक्यवाचक रीति का प्रयोग न कर, इस बात को स्पष्ट करने के लिए कि ये सब देवताओं के चक्रवर्ती राजा हैं; तत्तत् पदार्थों के विशेषणविशेष्यभाव का परिवर्तन कर दिया है । ( भाव यह है कि 'यस्य वेदा वाहाः भुजंगमानि भूषणानि में वेदसर्पादि विशेष्य हैं वाहभुजंगादि विशेषण तथा इस रीति से कहने पर भी महादेव का देवाधीश्वरत्व प्रतीत हो ही जाता है, किंतु उसको और अधिक स्पष्ट करने के लिए यहाँ विशेषणविशेष्यभाव में परिवर्तन कर वाहभूषणादि को विशेष्य तथा वेदसर्पादि को विशेषण बना दिया गया है । इस प्रकार साक्षात् वाच्यवाचकभाव का उपादान न कर कवि ने भंग्यंतर का प्रयोग किया है ।)
( जयदेव ने पर्यायोक्त ( पर्यायोक्त) का लक्षण भिन्न प्रकार का दिया है, इसलिए अप्पयदीक्षित शंका का समाधान करना चाहते हैं ।) पर्यायोक्त का संप्रदायागत (प्राचीन आलंकारिक सम्मत ) लक्षण यही है, अलंकारसर्वस्वकार ने भी पर्यायोक्त के इसी संप्रदायात लक्षण को अंगीकार किया है: - 'पर्यायोक्त वह होता है, जहाँ गम्य (व्यंग्य) अर्थ का भिन्न शैली (भंग्यंतर ) के द्वारा अभिधान किया गया हो ।'
देखिये- अलङ्कार सर्वस्व ( पृ० १४१ )
यद्यपि अलंकार सर्वस्वकार रुय्यक ने पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण ठीक दिया है, तथापि उसके उदाहरण की मीमांसा बिलकुल दूसरे ढंग से की है । रुय्यक ने पर्यायोक्त का उदाहरण यह प्रसिद्ध पद्य दिया है :
टिप्पणी- इस संबंध में यह शंका हो सकती है कि रुय्यकादि ने तो 'कार्यमुख के द्वारा कारण की व्यंजना होने पर पर्यायोक्त माना है' तो फिर दीक्षित ने उनसे विरुद्ध लक्षण क्यों दिया है, इस शंका की कल्पना करके दीक्षित बताने जा रहे हैं कि सर्वस्वकारादि का भी तात्पर्य ठीक