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________________ पर्यायोक्तालङ्कारः १२३ यथा वा ( नैषध० ८।२४) निवेद्यतां हन्त समापयन्तौ शिरीषकोशम्रदिमाभिमानम् । पादौ कियदूरमिमौ प्रयासे निधित्सते तुच्छदयं मनस्ते। अत्र 'कियदूरं जिगमिषा ?' इति गम्य एवार्थो रूपान्तरेणाभिहितः । । यथा वा वन्दे देवं जलधिशरधिं देवतासार्वभौम व्यासप्रष्ठा भुवनविदिता यस्य वाहाधिवाहाः। हैं, पर उन्हें भिन्न रूप के द्वारा वर्णित किया गया है। (गौतम का एक नाम अक्षपाद भी है, क्योंकि सुना जाता है उनके पैर में भी आँख थी, जिससे वे मनन करते जाते थे और पैर स्वयं रास्ता ढूंढ लेता था। इसी तरह पतंजलि शेत्र के अवतार थे। शेष सर्पराज हैं, तथा सर्प के चरण गुप्त होते हैं। सर्प का एक नाम गुप्तपाद भी है, अतः पतंजलि के लिए यहाँ जिनके पैरों को लोग नहीं देखते यह कहा है। इस प्रकार यहाँ गौतम के अक्ष. पादत्व तथा पतंजलि के गुप्तपादत्व का वर्णन उनके असाधारण रूप का वर्णन है। टिप्पणी-इस पद्य में गौतम तथा पतंजलि में 'अपरिच्छेद्यत्व' रूप एक धर्मान्वय पाया जाता है। अतः यहाँ तुल्ययोगिता अलंकार भी है। इस प्रकार पद्य में तुल्ययोगिता तथा पर्यायोक्त का अंगांगिभाव संकर है । इसी पद्य में 'ताभ्यामपि' इस पदद्वय के द्वारा कैमुतिकन्याय से यह अर्थ प्रतीत होता है कि जब शिव के अनुग्रह से सम्पन्न गौतम तथा अक्षपाद ही उस विद्या को न पा सके, तो दूसरों की क्या शक्ति की उतनी विद्या प्राप्त कर सक, अतः यहाँ अर्थापत्ति (काव्यार्थापत्ति) अलंकार है । इस तरह अर्थापत्ति का पूर्वोक्त संकर के साथ पुनः संकर अलंकार पाया जाता है। अथवा जैसे दमयंती नल से पूछ रही है :-'हे दूत, बताओ तो सही, तुम्हारा यह कम दया वाला (निर्दय) मन शिरीष की कली को कोमलता के अभिमान को खण्डित करनेवाले इन तुम्हारे चरणों को कितने दूर तक के प्रयास में रखना चाहता है।' टिप्पणी-इस पद्य में नल के कोमल चरणों को उसका मन दूर तक ले जाने का कष्ट दे रहा है, इसके द्वारा मन के निर्दय होने (तुच्छदयं) का समर्थन किया गया है, अतः काव्यलिंग अलङ्कार है । तुम कहाँ जा रहे हो, इस गम्य अर्थ का प्रतीति के लिए 'कितने दूर तक तुम्हारे चरणों को यह निर्दय मन घसीटना चाहता है' इस अधिक सुंदर ढंग का प्रयोग करने से पर्यायोक्त अलङ्कार है 'शिरीष की कली की कोमलता के अभिमान को समाप्त करते' इस अंश में शिरीषकलिका से चरणों की उत्कृष्टता बताई गई है, अतः यह व्यतिरेक अलङ्कार है। इन तीनों का अंगांगिभाव संकर इस पद्य में पाया जाता है । यहाँ दमयंती नल से यह पूछना चाहती है कि 'तुम कितने दूर जाना चाहते हो,' पर इस गम्य अर्थ को रूपांतर के द्वारा वर्णित किया गया है। अथवा जैसे मैं उन देवाधिदेव की वन्दना करता हूँ, जिनका तूणीर समुद्र है, जिनके वाहन के वाहन लोकप्रसिद्ध व्यासादि महर्षि हैं, जिनके आभूषणों की संदूक पाताललोक है, जिनकी पुष्पवाटिका आकाश है, जिनकी साड़ी (धोती) के रखवाले इन्द्रादि लोकपाल है तथा जिनका चन्दनवृक्ष कामदेव है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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