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________________ [१६] अप्पय दीक्षित मूलतः मीमांसक एवं वेदांती हैं। उनका निम्न पद्य तथा उसकी कुवलयानन्द की वृत्ति में की गई व्याख्या अप्पय दीक्षित के तद्विषयक पांडित्यका संकेत कर सकते हैं: आश्रित्य नूनममृतद्युतयः पदं ते देहसयोपनतदिग्यपदाभिमुख्याः । लावण्यपुण्यनिचयं सुहृदि वदास्ये विन्यस्य यांति मिहिरं प्रतिमासभिवाः ।। (कुवलयानन्द पृ० १०९) ___ जहाँ तक दीक्षित के साहित्यशास्त्रीय पांडित्य का प्रश्न है, इनमें कोई मौलिकता नहीं दिखाई देती। क्या कुवलयानन्द, क्या चित्रमीमांसा, क्या वृत्तिवार्तिक तीनों ग्रन्थों में दीक्षित का संग्राहक रूप ही अधिक स्पष्ट होता है। वैसे जहाँ कहीं दिक्षित ने मौलिकता बताने की चेष्टा की है वे असफल ही हुए हैं तथा उन्हें पंडितराज के कटु आक्षेप सहने पड़े हैं। पंडितराज ही नहीं अलंकारकौस्तुभकार विश्वेश्वर ने भी अप्यय दीक्षित के कई मतों का खंडन किया है । अप्पय दीक्षित के इन तीन ग्रन्थों में वृत्तिवार्तिक तथा चित्रमीमांसा दोनों ग्रन्थ अधूरे ही मिलते हैं । इन दोनों ग्रन्थों में प्रदर्शित विचारों का संक्षिप्त विवरण हम भूमिका के आगामी पृष्ठों में देंगे वृत्तिवार्तिक में केवल अभिधा तथा लक्षणा शक्ति का विवेचन पाया जाता है। चित्रमीमांसा उत्प्रेक्षान्त मिलती है, कुछ प्रतियों में अतिशयोक्ति का भी अधूरा प्रकरण मिलता है। अप्पय दीक्षित के अलंकार संबंधी विचारों के कारण अलंकारशास्त्र में एक नया वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ है। पंडितराज ने रसगंगाधर में दीक्षित के विचारों का कस कर खण्डन किया है तथा उन्हें रुय्यक एवं जयरथ का नकलची घोषित किया है। इतना ही नहीं, बेचारे अप्पय दीक्षित की गालियां तक सुनाई है। व्याजस्तुति के प्रकरण में तो अप्पय दीक्षित को महामूर्ख तथा , बैल तक बताते हुए पंडितराज कहते हैं:-'उपालम्भरूपाया निन्दाया अनुत्थानापत्तेः प्रतीतिविरोधाचेति सहृदयैराकलनीयं किमुक्तं द्रविडपुंगवेनेति।(रसगंगाधर पृ० ५६३) अप्पय दीक्षित तथा पंडितराज के परस्पर वैमनस्य की कई किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं, जिनके विवरण में हम नहीं जाना चाहते । सुना जाता है कि यवनी को रखैल रखने के कारण पंडितराज को जातिबहिष्कृत करने में दीक्षित ही प्रमुख कारण थे। अतः पंडितराज ने दीक्षित के उस व्यवहार का उत्तर गालियों से दिया है। कुछ भी हो, पंडितराज जैसे महापंडित के लिए इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना ठीक है या नहीं, इस पर विद्वान् ही निर्णय दे सकते हैं। अप्यय दीक्षित के विचारों का खण्डन एक दूसरे आलंकारिक ने भी किया था-ये हैं भीमसेन दीक्षित । भीमसेन दीक्षित ने अपनी काव्यप्रकाश की टीका सुधासागर में बताया है कि उन्होंने 'कुवलयानन्दखण्डन' नामक ग्रन्थ की रचना की थी, जिसमें अप्यय दीक्षित के मतों का खण्डन रहा होगा। यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। कुवलयानन्द पर दस टीकाओं का पता चलता है, जो निम्न हैं। इनमें तीन टीकायें प्रकाशित हो चुकी हैं। (१) रसिकरंजनीटीका:-इसके लेखक गंगाधर वाजपेयी या गंगाधराध्वरी है। इसने अप्यय दीक्षित को अपने पितामह के भाई का गुरु ( अस्मपितामहसहोदरदेशिकेंद्र) कहा है। गंगाधर तंजौर के राजा शाह जी ( १६८४-१७११ ई.) के आश्रय में था। यह टीका हाकास्य नाथ की टिप्पणी के साथ कुंभकोणम् से सन् १८९२ में प्रकाशित हुई है। कुवलयानन्द के पाठ के लिए यह टीका प्रामाणिक मानी जाती है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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