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कुवलयानन्दः
अत्र शरीरविशेषणानि तस्य हेयत्वेनासंरक्षणीयत्वाभिप्रायगर्भाणि | यथा वाव्यास्थं नैकतया स्थितं श्रुतिगणं, जन्मी न वल्मीकतो,
नाभौ नाभवमच्युतस्य, सुमहद्भाष्यं च नाभाषिषम् । चित्रार्थो न बृहत्कथामचकथं, सुत्रामिण नासं गुरु
देव ! त्वद्गुणवृन्दवर्णनमहं कतु कथं शक्नुयाम् ? ।। अत्र श्रुतिगणंव्यास्थम्' इत्यादीनि विशेषणानि स्वस्मिन् व्यासाद्यसाधारणकार्यकर्तृत्वनिषेधमुखेन 'नाहं व्यासः' इत्याद्यभिप्रायगर्भाणि | तत्राद्ययोरुदाहरणयोरेकैकं विशेषणम् , समनन्तरयोः प्रत्येक बहूनि विशेषणानि | तत्रापि प्रथमोदाहरणे सर्वाणि विशेषणान्येकाभिप्रायगर्भाणि पदार्थरूपाणि च द्वितीयोदाहरणे भिन्नाभिप्रायगर्भाणि वाक्यार्थरूपाणि चेति भेदः। एतेषु व्यङ्ग-थार्थसद्भावेऽपि न ध्वनिव्यपदेशः। शिवस्य तापहरणे, मन्मथस्य कैमुतिकन्यायेन ___ यहाँ शरीर के साथ जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है, वे सब साभिप्राय हैं, क्योंकि उनसे शरीर की तुच्छता (हेयत्व) तथा अरक्षणीयता की प्रतीति होती है।
अथवा जैसे
कोई कवि राजा से कह रहा है, हे देव, बताओ तो सही मैं आपके गुणसमूह का वर्णन करने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ-मैने न तो एक वेद को अनेक शाखा में विस्तारित ही किया ह ( मैं वेदव्यास नहीं हूँ), न मैं वाल्मीकि से ही जन्मा हूँ, (मैं वाल्मीकि भी नहीं हूँ), मैं विष्णु की नाभि से पैदा नहीं हुआ हूँ (मैं ब्रह्मा नहीं हूँ), न मैंने महाभाष्य की ही रचना की है (मैं महर्षि पतञ्जलि या भगवान् शेष भी नहीं हूँ), मेंने सुंदर अर्थों वाली बृहत्कथा भी नहीं कही है (मैं गुणाढ्य या शिव नहीं हूँ ), और न मैं देवराज इन्द्र का गुरु ही रहा हूँ ( में बृहस्पति भी नहीं हूँ)।
'यहाँ श्रुतिगणं व्यास्थम्' इत्यादि विशेषणों के द्वारा वेदव्यास आदि तत्तत् व्यक्ति के असाधारण कार्य को बताकर उनके कर्तृत्व का अपने लिए निषेध करने से 'नाहं व्यासः' ( में व्यास नहीं हूँ ) इत्यादि तत्तत् अभिप्राय की प्रतीति होती है। प्रथम दो उदाहरणों से वाद के दो उदाहरणों का यह भेद है कि वहां एक एक ही साभिप्राय विशेपण पाया जाता है, जब कि इन दो ('सर्वाशुचि' तथा 'व्यास्थं नैकतया') उदाहणों में अनेक अभिप्रायगर्भ विशेषण प्रयुक्त हुये हैं। इन पिछले दो उदाहरणों में भी परस्पर यह भेद है कि प्रथम ('सर्वाशुचि' आदि) में समस्त विशेषण एक ही अभिप्राय के व्यंजक हैं तथा पदार्थरूप हैं, जब कि द्वितीय ('व्यास्थम्' इत्यादि) में सभी विशेषण अलग अलग अभिप्राय से गर्भित हैं तथा वाक्यार्थरूप हैं । यद्यपि इन स्थलों में व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है, तथापि ये ध्वनिकाव्य के उदाहरण नहीं है, अपितु यहाँ अपरांगगुणीभूत व्यंग्य ही है। इसका कारण यह है कि यहाँ व्यंग्यार्थ वाच्य का पोषक बन जाता है। इसे स्पष्ट करने के लिए उपयुक्त चारों उदाहरणी में तत्तत् व्यंग्याथै तत्तत् वाच्यार्थ का उपस्कारक कैसे बन गया है, इसे बताते हैं। 'सुधांशुकलितो०' इत्यादि पद्यार्ध में शिव तापहरण रूप वाच्यार्थ के उपस्कारक हैं, इसी तरह 'तव प्रसादात्' में कामदेव कैमुतिकन्याय से समस्त धनुर्धारियों के भंजकत्व रूप