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________________ परिकरालङ्कारः २४ परिकरालङ्कारः अलङ्कारः परिकरः साभिप्राये विशेषणे । सुधांशुकलितोत्तंसस्तापं हरतु वः शिवः ॥ ६२ ॥ अत्र 'सुधांशुकलितोत्तंसः' इति विशेषणं तापहरणसामर्थ्याभिप्रायगर्भम् । यथा वा ( कुमार० ३।१० ~~ > ३ सर्वाशुचि निधानस्य कृतघ्नस्य विनाशिनः । शरीरकस्यापि कृते मूढाः पापानि कुर्वते ॥ ~~~~ तव प्रसादात्कुसुमायुधोऽपि सहायमेकं मधुमेव लब्ध्वा । कुर्या हरस्यापि पिनाकपाणेधैर्यच्युति के मम धन्विनोऽन्ये ॥ अत्र 'पिनाकपाणे:' इति हरविशेषणं 'कुसुमायुध' इत्यर्थलभ्याहमर्थविशेषणं च सारासारायुधत्वाभिप्रायगर्भम् । यथा वा २४ परिकर अलंकार ६२ - जहाँ किसी प्रकृत अर्थ से संबद्ध विशेष अभिप्राय की व्यंजना कराने के लिए किसी विशेषण का प्रयोग किया जाय, वहाँ परिकर अलंकार होता है जैसे चन्द्रमा के द्वारा सुशोभित सिर वाले शिव आप लोगों के संताप को दूर करें । टिप्पणी- परिकर का लक्षण यह है : - 'प्रकृतार्थोपपादकार्थ व्यञ्जक विशेषणत्वं परिकरलक्षणम् ।' परिकर अलंकार में ध्वनि नहीं होती, क्योंकि यहाँ व्यंग्यार्थं वाच्यार्थ का उपस्कारक होता है । अतः ध्वनि का वारण करने के ही लिए 'प्रकृतार्थोपपादक' विशेषण का प्रयोग किया गया है । हेतु अलंकार के वारण के ही लिए 'व्यञ्जकत्व' का समावेश किया गया है, क्योंकि जहां हेतु में 'व्यञ्जकत्व' नहीं होता, वहाँ 'बोधकत्व' होता है । परिकरांकुर अलंकार के वारण के लिए लक्षण में 'विशेषण' का निवेश किया गया है. क्योंकि परिकरांकुर में विशेष्य का प्रयोग साभिप्राय होता है । यहाँ 'सुधांशुकलितोत्तंसः' पद 'शिवः' का विशेषण है, जिसका प्रयोग इसलिए किया गया है कि शंकर में ताप को मिटाने की शक्ति है, क्योंकि शीतल चन्द्रमा उनके मस्तक पर स्थित है, इस अभिप्राय की प्रतीति हो सके । अथवा जैसे— कुमारसंभव के तृतीय सर्ग में कामदेव इन्द्र से कह रहा है - 'हे देवेन्द्र, तुम्हारी कृपा से अकेले वसंत को साथ पाकर कुसुमायुध होने पर भी मैं पिनाक धनुष को धारण करने वाले शिव तक के धैर्य का भंग कर दूँ, दूसरे धनुर्धारी तो मेरे आगे क्या चीज हैं ? यहाँ महादेव के लिए प्रयुक्त विशेषण 'पिनाकपाणि' तथा 'कुर्यां' क्रिया के द्वारा अर्थलभ्य (आक्षिप्त ) 'अहं' के विशेषण 'कुसुमायुध' के द्वारा कवि पिनाक धनुष के बलशाली होने तथा पुष्पों के धनुष के निर्बल होने की प्रतीति कराना चाहता है । अतः यहाँ परिकर अलंकार है । अथवा जैसे 'यह तुच्छ शरीर समस्त अपवित्रता का घर है तथा कृतघ्न एवं क्षणिक है, फिर भी मूर्ख (अज्ञानी ) लोग इसके लिए तरह तरह के पाप कर्म करते रहते हैं ।'
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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