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________________ अतिशयोक्त्यलङ्कारः यथा वा यामि न यामीति धवे वदति पुरस्तात्क्षणेन तन्वङ्गथाः । गलितानि पुरो वलयान्यपराणि तथैव दलितानि ।। ४२ ।। अत्यन्तातिशयोक्तिस्तु पौर्वापर्यव्यतिक्रमे । अग्रे मानो गतः पश्चादनुनीता प्रियेण सा ॥ ४३ ॥ (अत्यन्तातिशयोक्तिस्तु कार्ये हेतुप्रसक्तिजे । यास्यामीत्युदिते तन्व्या वलयोऽभवदुर्मिका ।।) ___ 'मैं जाता हूँ' 'अच्छा, मैं नहीं जाता हूँ' इस प्रकार पति के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार के वचन कहने पर कोमलांगी के कुछ कंकण तो हाथ से खिसक पड़े और कुछ कंकण टूट गये। यहाँ पति के 'में जाता हूँ' वाक्य को सुनकर वह एकदम दुबली हो गई, फलत: उसके हाथ में कंकम न रह पाये, वे नीचे खिसक पड़े; दूसरी ओर उसी क्षण पति के 'मैं नहीं जाता हूँ' वाक्य को सुनकर वह हर्षित होने के कारण प्रसन्नता से फूल उठी और उसके रहे सहे कंकण (चूड़ियाँ) हाथ में न समाने के कारण चटक पड़े। टिप्पणी-यहाँ नायक के विदेशगमन तथा विदेशागमन के ज्ञानमात्र से नायिका का कृश तथा पष्ट होना वर्णित हआ है. अतः यह चपलातिशयोक्ति का उदाहरण है। प्राचीन विद्वान इस भेद को कार्यकारणसम्बन्धमूला अतिशयोक्ति में नहीं मानते, क्योंकि उनका मत है कि जहाँ कहीं कारण का अभाव होने पर भी कार्योत्पत्ति हो, वहां विभावना होती है। कार्यहेतुज्ञानमात्र से कार्योत्पत्ति में एक तरह से कारणाभाव में कार्योत्पत्ति होने वाली विभावना का ही चमत्कार है। इसी बात को गंगाधर वाजपेयी ने रसिकरंजनी में निर्दिष्ट किया है : 'अत्र प्रसिद्धप्रवासादिकारणाभावेऽपि वनितांगकादिरूपकार्योत्पत्तिवर्णनात् विभावनालंकारेणैव चमत्कारात् न चपलातिशयोक्तिर्नामातिरिक्तोऽलङ्कार उररीकार्यः । 'नालाक्षारसासिक्तं रक्तं स्वच्चरणद्वयम् ।' इति लाक्षारसासेचनरूपकारणविरहेऽपि रक्तिमरूपकार्यो. स्पत्तिवर्णनरूपविभावनातो मात्र वैलक्षण्यं पश्यामः। इयांस्तु भेदः। यत्तत्र कारणाभावो वाच्यः । अत्र कारणप्रसरत्युक्त्या कारणाभावो गम्यत इत्यनेनेवाभिप्रायेण प्राञ्चो नैनां च्यवजह्वरिति ।' ___ (रसिकरंजना पृ० ७६ ) ४३-(अत्यन्तातिशयोक्ति) जहाँ कारण तथा कार्य के पौर्वापर्य का व्यतिक्रम कर दिया जाय, अर्थात् कार्य की प्राग्भाविता का वर्णन किया जाय और कारण की परभाविता का, वहाँ अत्यन्तातिशयोक्ति अलंकार होता है, जैसे नायिका का मान तो पहले ही चला गया, पीछे नायक ने उसका अनुनय किया। (यहाँ नायिका का मानापनोदन कार्य है, यह नायक की अनुनय क्रियारूप कारण के पूर्व ही हो गया है । यद्यपि कारण सदा कार्य के पूर्व होता है, तथा कार्य कारण के बाद ही, कितु कवि अपनी प्रतिभा से इनके पौर्वापर्य में उलटफेर कर देते हैं। यह व्यतिक्रम कार्य की क्षिप्रता (शीघ्रता) की व्यंजना कराने के लिए किया जाता है। कारण तथा कार्य का सहभाव, कारणज्ञानमात्र से कार्योत्पत्ति, कारण के पूर्व ही कार्योत्पत्ति, ये तीनों कविता की बातें हैं, लोक में तो कारण के बाद ही कार्य होता है, क्योंकि कारण में कार्य से निप प्राग्भाविता का होना आवश्यक है।)
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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