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________________ कुवलयानन्दः अत्र खड्गस्य कोशत्यागादिकाल एव रिपूणां धनगृहत्यागादि वर्णितम् ॥४१॥ चपलातिशयोक्तिस्तु कार्ये हेतुप्रसक्तिजे । यास्यामीत्युदिते तन्व्या वलयोऽभवदुर्मिका ।। ४२ ।। अत्र नायकप्रवासप्रसक्तिमात्रेण योषितोऽतिकार्य कार्यमुखेन दर्शितम् । यथा वा आदातुं सकृदीक्षितेऽपि कुसुमे हस्ताग्रमालोहितं ___ लाक्षारञ्जनवार्तयापि सहसा रक्तं तलं पादयोः। अङ्गानामनुलेपनस्मरणमप्यत्यन्तखेदावहं हन्ताऽधीरदृशः किमन्यदलकामोदोऽपि भारायते ।। अपना म्यान छोड़ता है, तो उसके शत्रु खजाने का त्याग करते हैं, जब खड़ग शत्रओं का संहार करने के लिए हिलता है, तो वे कम्पित होने लगते हैं और जब खड़ग क्षमा छोड़ता है, तो वे पृथिवी को छोड़ देते हैं (रणस्थल को छोड़कर या राज्य को त्याग कर भाग खड़े होते हैं)। __ यहाँ हम्मीर के खड्ग के कोशादित्यागरूप कारण के साथ-साथ ही शत्रओं के धनगृहत्यागादि कार्य का होना वर्णित किया गया है, अतः अक्रमातिशयोक्ति अलङ्कार है। (इन दोनों उदाहरणों में ज्या; कोश, क्षमाशब्दों के श्लिष्ट प्रयोग पर अतिशयोक्ति आवृत है)। टिप्पणी-अक्रमातिशयोक्ति का एक अश्लिष्ट उदाहरण यह है : सममेव समाक्रान्तं द्वयं द्विरदगामिना ।। तेन सिंहासनं पित्र्यमखिलं चारिमण्डलम् ॥ (रघुवंश) (चपलातिशयोक्ति ) ४२-जहाँ कारण के ज्ञानमात्र से ही कार्य की उत्पत्ति हो जाय, वहाँ चपलातिशयोक्ति होती है। जैसे, प्रवास के लिए तत्पर नायक के यह कहने ही पर कि 'मैं जाऊँगा', नायिका की अंगूठी हाथ का कंगन बन गई। नायिका के कार्यरूप कार्य का कारण नायक का विदेशगमन है । इस उक्ति में नायक के विदेश जाने के पहले ही, उसके प्रवास की बात सुनने भर से (कारण के ज्ञानमात्र से) नायिका के अतिकार्य (अत्यधिक दुबली होने)रूप कार्य का वर्णन किया गया है, अतः यहाँ चपलातिशयोक्ति अलंकार है। किसी विरहिणी की सुकुनारता का वर्णन है। जब वह फूल को ग्रहण करने के लिए एक बार देखती है, तो उतने भर से उसका करतल लाल हो जाता है, फूल को हाथ में लेने की बात तो दूर रही, जब उसके सामने महायर लगाने की बात की जाती है, तो उसके पैरों के तलुए लाल हो उठते हैं, पैरों में महावर लगाना तो दूर रहा; अंगों में अनुलेपन लगाने का स्मरण करने भर से उसे शत्यधिक कष्ट होता है, अंगलेप लगाने की बात तो दूर है। बड़े दुःख की बात है कि उस चखल (अधीर) नेत्रों वाली सुकुमार युवती के लिए और तो क्या, बालों को सुगन्धित बनाना भी बोशा-सा लगता है। यहाँ फूल को ग्रहण करने के लिए देखले भर से हाथों का लाल हो जाना तथा तत्तत् कारण से तत्तत् क्रिया के उत्पन्न होने का वर्णन कारणासक्ति मात्र से कार्योत्पत्ति का वर्णन है, अतः चपलातिशयोक्ति अलंकार पाया जाता है । अथवा जसे
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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