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________________ अतिशयोक्त्यलङ्कारः www यद्यपहृतिगर्भत्वं सैव सापहवा मता । त्वत्सूक्तिषु सुधा राजन्भ्रान्ताः पश्यन्ति तां विधौ ॥ ३७ ॥ अत्र 'त्वत्सूक्तिमाधुर्यमेवामृतम्' इत्यतिशयोक्तिश्चन्द्रमण्डलस्थममृतं न भवतीत्यपहृतिगर्भा । यथा वा मुक्ताविद्रुममन्तरा मधुरसः पुष्पं परं धूर्वहं प्रायद्युतिमण्डले खलु तयोरेकासिका नार्णवे । तश्चोदयति शङ्खमूर्ध्नि न पुनः पूर्वाचलाभ्यन्तरे तानीमानि विकल्पयन्ति त इमे येषां न सा दृक्पथे ॥ अत्राधररस एव मधुरस इत्याद्यतिशयोक्तिः पुष्परसो मधुरसो न भवतीत्यपह्नुतिगर्भा । अलङ्कारसर्वस्वकृता तु स्वरूपोत्प्रेक्षायां सापह्नवत्वमुदाहृतम् ४७ ww ३७ - यदि यही अतिशयोक्ति अपह्नुति अलंकार से युक्त हो, तो सापह्नवा अतिशयोक्ति होती है । ( भाव यह है, अतिशयोक्ति दो तरह की होती है-सापह्नवा तथा निर पह्नवा । ) सापह्नवा का उदाहरण यह है । 'हे राजन्, तेरी सूक्ति में ही अमृत है, मूर्ख लोग उसे चन्द्रमा में देखा करते हैं ।' 1 यहाँ 'तेरी सूक्ति की मधुरता ही अमृत है' यह अतिशयोक्ति है, इसके साथ कवि ने चन्द्रमण्डलस्थित अमृत अमृत नहीं है, इस प्रकार वास्तविक अमृतस्व का निषेध किया है, अतः यह अतिशयोक्ति अपह्नुतिगर्भा हैं । टिप्पणी- पंडितराज जगन्नाथ ने दीक्षित के इस अतिशयोक्तिभेद का खण्डन किया है । पंडितराज पर्यस्तापह्नुति को ही अपह्नुति नहीं मानते । अतः एतन्मूलक अपहृतिगर्भा अतिशयोक्ति को मानने के पक्ष में भी नहीं हैं। -: .... यत्तु कुवलयानन्दे—'यद्यपह्नवगर्भत्वं तां विधौ' इत्यत्र पर्यस्तापह्नुतिगर्भामतिशयोक्तिमाहुस्तच्चिन्त्यम् । पर्यस्तापह्नुतेरपह्नुतित्वं न प्रामाणिकसंमतमिति प्रागेवावेदनात् । ( रसगंगाधर पृ० ४२० ) इसका अन्य उदाहरण निम्न है। : कोई कवि किसी सुन्दरी के अंगों का वर्णन कर रहा है :- सच्चा मधुरस यदि कहीं है, तो वह मोती (दंतपंक्ति) तथा विद्रुम ( अधर) के बीच में है, पुष्पों का रस सच्चा मधुरस नहीं है, खाली उसने मधुरस का नाम धारण कर रखा है। ये मोती और विद्रुम समुद्र में नहीं पाये जाते, यदि ये कहीं एक साथ पाये जाते हैं तो चन्द्रमा के मंडल ( मुख ) में ही । यह चन्द्रमा पूर्व दिशा के आँचल में नहीं उदित होता, अपितु शंख (ग्रीवा) के सिर पर उदित होता है-जिन लोगों के नयनपथ में वह सुंदरी अवतरित नहीं होती, वे ही लोग इन तत्तत् वस्तुओं के विषय में विकल्प ( तर्कवितर्क ) किया करते हैं । यहाँ 'अधररस ही मधुरस है' यह अतिशयोक्ति 'पुष्परस मधुरस नहीं' इस अपह्नुति के द्वारा गर्भित है । ( इसी तरह 'मुख ही चन्द्र है' 'ग्रीवा ही शंख है' ये दोनों अतिशयोकियाँ भी 'मोती और विद्रुम समुद्र में नहीं पाये जाते' तथा 'चन्द्रमा पूर्व दिशा में उदित नहीं होता' इन अपह्नुतियों से संयुक्त हैं ।) अलंकार सर्वस्वकार रुय्यक ने तो स्वरूपोत्प्रेक्षा में भी सापह्नव भेद माना है । इसके उदाहरण में उन्होंने निम्न पद्य दिया है। :
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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