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________________ ४६ कुवलयानन्दः यथा वा (विद्ध. भं.)सुधाबद्धग्रासैरुपवनचकोरैरनुसृतां किरज्योत्स्नामच्छां लवलिफलपाकप्रणयिनीम् । उपप्राकाराग्रं प्रहिणु नयने तर्कय मना गनाकाशे कोऽयं गलितहरिणः शीतकिरणः ।। इत्यत्र 'कोऽयं गलितहरिणः शीतकिरण' इत्युक्त्या प्रसिद्धचन्द्रा दस्तत उत्कर्षश्च गभितः। एवमन्यत्राप्यूहनीयम् ॥ ३६॥ 'प्राञ्चस्तु रूपक इवात्रापि विषय्यभेदो भासते। परं तु निगीणे विषये इति रूपकादस्या विशेषः । अध्यवसायस्य सिद्धत्वेनाप्राधान्यानिश्चयात्मकत्वाच्च साध्याध्यवसानायाः संभावनात्मकोत्प्रेक्षाया वैलक्षण्यम्' इत्याहुः। "अत एवातिशयोक्तावभेदोऽनुवाद्य एव, न विधेय इति प्राचामुक्तिः संगच्छते ॥' ( बही पृ० ४१५ ) रूपकातिशयोक्ति का दूसरा उदाहरण निम्न है :'जरा इस परकोटे के अगले हिस्से पर तो दृष्टि डालो, कुछ अनुमान तो लगाओ कि आकाश के बिना ही, उस परकोटे पर बिना हिरण वाला (जिसका हिरण का कलंक गल गया है), यह चन्द्रमा कौन है ? यह चन्द्रमा चारों ओर स्वच्छ चाँदनी को छिटका रहा है, और लवलीलता के पके फलों के समान श्वेत चन्द्रिका को अमृत का ग्रास समझ कर ग्रहण करने वाले, उपवन के चकोरों के द्वारा उसका पान किया गया है। (यह विद्धशालभंजिका नाटिका में राजा की उक्ति है। राजा विदूषक से नायिका के मुख की प्रशंसा कर रहा है। यहाँ नायिकामुख (विषय) का निगरण कर चन्द्रमा (विषयी) के साथ उसका अध्यवसाय स्थापित किया गया है।) यहाँ 'कोऽयं गलितहरिणः शीतकिरणः' पद से इस चन्द्र (मुख) का प्रसिद्ध चन्द्र से भेद एवं उत्कर्ष व्यञ्जित किया गया है। इसी प्रकार अन्य स्थलों में भी ऐसा ही समझना चाहिए। टिप्पणी-चन्द्रिकाकार ने इसी ढंग का एक दूसरा पद्य दिया है, जहाँ भी विषयी ( उपमान) इसी तरह कल्पित है : अनुच्छिष्टो देवैरपरिदलितो राहुदशनैः कलंकेनाश्लिष्टो न खलु परिभूतो दिनकृता। कुहूभिन! लिप्तो न च युवतिवक्रेण विजितः कलानाथः कोऽय कनकलतिकायामुदयते॥ यहाँ प्रसिद्ध चन्द्र से इस चन्द्र (मुख ) की अधिकता वाली उक्ति है । यह उक्ति न्यूनतापरक भी हो सकती है, जैसे-कोऽयं भूमिगतश्चन्द्रः' में जहां चन्द्रमा की 'अदिव्यता' ( भूमिगतत्व ) रूप न्यूनता पाई जाती है । दीक्षित तथा चन्द्रिकाकार द्वारा उदाहृत पद्यों में 'अयं' का प्रयोग होने से यहाँ विषय ( उपमेय ) का उपादान हो गया है, अतः अतिशयोक्ति कैसे हो सकती है ( रूपक अलंकार होना चाहिए ) इस शंका का समाधान चन्द्रिकाकार ने यों किया है। यहाँ 'अयं' का प्रयोग विषयी के विशेषण के रूप में किया गया है । ( यह यहाँ 'चन्द्रमा' का विशेषण है, 'मुख' का बोधक नहीं ) इस स्थिति में यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार ही होगा, यदि इसमें विषय ( मुख ) की विशेषणता मानना अभीष्ट हो तो रूपक अलंकार होगा। इसीलिए मम्मट ने रूपक तथा अतिशयोक्ति के सन्देह सङ्कर में-'नयनानन्ददायींदोर्बिम्बमेतत् प्रसीदति' यह उदाहरण दिया है, जहाँ 'एतत्' को 'बिम्ब' का विशेषण मानने पर अतिशयोक्ति होगी, 'मुखं' का बोधक मानने पर रूपक । रूपकातिशयोक्ति के बाद अयिशयोक्ति के अन्य भेदों को ले रहे हैं।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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