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________________ उत्प्रेक्षालङ्कारः ४१ रात्रौ रवेर्दिवा चन्द्रस्याभावः सन्नपि प्रताप - यशसोः सर्गेन हेतुरिति तस्य तद्धेतुत्वसंभावना सिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा । विवस्वताऽनायिषतेव मिश्राः स्वगोसहस्रेण समं जनानाम् | गावोऽपि नेत्रापरनामधेयास्तेनेदमान्ध्यं खलु नान्धकारैः ।। अत्र विवस्वता कृतं स्वकिरणैः सह जनलोचनानां नयनमसदेव रात्रावान्ध्यं प्रति हेतुत्वेनोत्प्रेक्ष्यत इत्यसिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा । कि पृथ्वी पर सूर्य रात्रि में प्रकाशित नहीं होता और चन्द्रमा का दिन में अभाव रहता है।" रात्रि में सूर्य का अभाव रहता है तथा दिन में चन्द्रमा का यह एक स्वाभाविक तथ्य है, किन्तु यह तथ्य राजा के प्रताप तथा यश की रचना का कारण नहीं है । इतना होने पर भी कवि ने तत्तत् काल में सूर्यचन्द्राभाव को नृपतिप्रतापयशःसृष्टि का हेतु संभावित (उत्प्रेक्षित ) किया है । यहाँ सिद्धविषया हेतू प्रेक्षा है । ( इस उदाहरण में 'रक्तौ' इत्यादि कारिकार्ध के उदाहरण से यह भेद है कि वहाँ हेतु भावरूप (-भू पर चलना) है, जब कि यहाँ यह अभावरूप है ।) असिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा का उदाहरण अगला पद्य है :1 शाम के समय सूर्य के अस्त हो जाने पर अन्धकार फैल जाता है, अन्धकार के कारण लोगों को कुछ भी दिखाई नहीं देता, इसो तथ्य को लेकर कवि ने एक उत्प्रेक्षा की है । - 'सूर्य अपनी गायों ( - किरणों ) के साथ मिली हुई लोगों की नेत्र इस दूसरे नाम चाली गार्यो (-नेत्रों ) को भी घेर ले गया है (जिस तरह कोई ग्वाला अपनी गायों के साथ दूसरी गायों को भी चरागाह से गाँव की ओर घेर ले जाता है )- यह रात्रिकालीन अन्धता इसीलिए हो गई है ( — क्योंकि लोगों के नेत्र तो सूर्य के साथ चले गये हैं ), यह अन्धता अन्धकार के कारण नहीं है ।' टिप्पणी- 'गौः स्वर्गे च बलीवर्दे रश्मौ च कुलिशे पुमान् । स्त्री सौरभेयीहग्बाणदिग्वाग्भूष्वप्सु भूम्नि च ॥' ( मेदिनी ) यहाँ 'सूर्य अपनी किरणों के साथ लोगों के नेत्रों को नहीं ले गया है' किन्तु इतना होने पर भी सूर्य के द्वारा लोकगो ( - नयन ) नयनक्रिया की संभावना की गई है, जो असत्य है तथा कवि ने उसी को रात्रिगत आन्ध्य का कारण उत्प्रेक्षित किया है। इस प्रकार यहाँ असिद्धविषया हेतूस्प्रेक्षा अलंङ्कार है । ( इस उदाहरण में कारिकार्धवाले उदाहरण से यह भेद है कि यहाँ 'अनायिषत इव' इस विषयोत्प्रेक्षा के द्वारा उसे हेतु के रूप में संभावित किया गया है । 'स्वन्मुखाभेच्छा' में 'इच्छा' पद के कारण गुणरूप हेतु पाया जाता है, जब कि यहाँ 'अनायिषत इव' के द्वारा क्रियारूप हेतु पाया जाता है । यद्यपि इस पद्य में दो उत्प्रेक्षायें पाई जाती हैं, एक स्वरूपोत्प्रेक्षा दूसरी हेतू प्रेक्षा - तथापि स्वरूपोत्प्रेक्षा ( अनायिषत इव ) वस्तुतः हेतूत्प्रेक्षा का अङ्ग बन कर आई है, अतः यहाँ हेतूत्प्रेक्षा की ही प्रधानता होने से इसको हेतूत्प्रेक्षा के उदाहरण के रूप में उपन्यस्त किया गया है । ) टिप्पणी - इस पद्य में कई अलंकार हैं। सूर्य दोनों गायों ( किरणों तथा नेत्रों ) के घुल मिल जाने के कारण उनके भेद को न जान सका, यह सामान्य अलंकार व्यंग्य है। 'स्वगोसहस्रेण समं ' में सहोक्ति अलंकार है । इसका तथा सामान्य अलंकार का 'सह' शब्द में प्रवेश होने के कारण एक वाचकानुप्रवेश संकर पाया जाता है। यह संकर 'गो' शब्द के क्लिष्ट प्रयोग पर आधृत है, अतः
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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