SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. कुवलयानन्दः पिनष्टीव तरङ्गाप्रैः समुद्रः फेनचन्दनम् । तदादाय करैरिन्दुर्लिम्पतीव दिगङ्गनाः॥ अत्र तरङ्गाप्रैः फेनचन्दनस्य प्रेरणं पेषणतयोत्प्रेक्ष्यते । समुद्रादुत्थितस्य चन्द्रस्य प्रथमं समुद्रपूरे प्रसूतानां कराणां दिक्षु व्यापनं च समुद्रोपान्त फेनचन्दनकृतलेपनत्वेनोत्प्रेक्ष्यते । उभयत्र क्रमेण समुद्रप्रांन्तगतफेनचन्दनपुञ्जीभवनं दिशां धवलीकरणं च निमित्तमिति फेनचन्दनप्रेरण-किरणव्यापनयोर्विष. ययोरनुपादानादनुक्तविषये स्वरूपोत्प्रेक्षे। येषां तूपात्तयोः समुद्र-चन्द्रयोरेवतत्कर्तृकपेषण-लेपनरूपधर्मोत्प्रेक्षेति मतं, तेषां मते पूर्वोदाहरणे धर्मिणि धर्म्यन्तरतादात्म्योत्प्रेक्षा । इह तु धर्मिणि धर्मसंसर्गोत्प्रेक्षेति भेदोऽवगन्तव्यः। रात्रौ रवेर्दिवा चेन्दोरभावादिव स प्रभुः। भूमौ प्रतापयशसी सृष्टवान् सततोदिते॥ व्यक्ति दूर से ऐसा बैठा दिखाई देता है, मानो देवदत्त बैठा हो ।' अतः स्पष्ट है कि 'बालेन्दुवक्राणि' इत्यादि पद्य में उक्तविषया स्वरूपोत्प्रेक्षा ही है, उपमा अलकार नहीं। - अब अनुक्तविषया स्वरूपोस्प्रेक्षा का उदाहरण देते हैं । 'यह समुद्र लहरों (-हाथों) के अग्रभाग से मानो फेनरूपी चन्दन को पीस रहा है। चन्द्रमा अपनी किरणों (हाथों) से उस (फेन-) चन्दन को लेकर दिशारूपी कामिनियों का मानो अनुलेपन कर रहा है। यहाँ लहरों के टकराने से उनके अग्रभाग से फेन (रूपी चन्दन) उत्पन्न होता है, इस क्रिया में पेषणक्रिया (चन्दन पीसने) की संभावना की गई है। समुद्र से निकलते हुए चन्द्रमा की किरणें सबसे पहले समुद्र के आसपास ही फैलती हैं तथा वहीं से सारी दिशाओं में व्याप्त होती हैं, अतः चन्द्रकिरणों का समुद्रपूर में प्रसरण तथा दिशाओं में व्याप्त होना समुद्र के प्रान्तभाग में फैले हुए फेनचन्दन के द्वारा दिशाओं के अनुलेपन के रूप में संभावित (उत्प्रेक्षित) किया गया है। (इस प्रकार यहाँ दो उत्प्रेक्षाएँ हैं, एक पेषण क्रिया की संभावना वाली उत्प्रेक्षा (पिनष्टीव), दूसरी लेपनक्रिया की संभावना वाली उत्प्रेक्षा (लिम्पतीव)। दोनों उत्प्रेक्षाओं की संभावना इस आधार पर की गई है कि समुद्र के प्रान्तभाग में फेनचन्दन का एकत्रित होना तथा दिशाओं का धवलीकरण ये दोनों धर्म समानरूप से पाये जाते हैं, इस धर्मसंबंध के कारण ही यह संभावना की गई है, साथ ही यहाँ फेनचन्दन को उत्पन्न करना (प्रेरण) तथा चन्द्रकिरणों का समस्त दिशाओं में व्याप्त होना-इन तत्तत् उत्प्रेक्षा के तत्तत् विषयों का कवि ने काव्य में साक्षात् उपादान नहीं किया है, अतः इन विषयों का उपादान न होने से यहाँ अनुक्तविषया स्वरूपोत्प्रेक्षा पाई जाती है। (इसी संबंध में उनलोगों का मत देना आवश्यक समझा गया है, जो धोत्प्रेक्षा तथा धर्मोत्प्रेक्षा ये दो उत्प्रेक्षा भेद मानते हैं । ) जो लोग ( रुय्यकादि ) समुद्र तथा चन्द्ररूप विषयों के उपादान के कारण यहाँ उनके द्वारा की गई पेषणक्रिया तथा लेपनक्रिया का निर्देश होने के कारण धर्मोत्प्रेक्षा मानते हैं, उनके मत से पहले उदाहरण ( 'बालेन्दु' आदि) में धर्मी में दूसरे धर्मी की तादाम्य-संभावना पाई जाती है। यहाँ धर्मी (समुद्र तथा चन्द्र) में अन्य धर्म के संसर्ग की संभावना पाई जाती है-यह दोनों उदाहरणों की उत्प्रेक्षा का भेद है। निम्न पद्य सिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा का उदाहरण है:'उस राजा ने सदा प्रकाशित रहने वाले अपने प्रताप तथा यश की सृष्टि इसलिए की
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy