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________________ कुवलयानन्दः ww योः स्वतः सिद्धे रक्तिमनि वस्तुतो विक्षेपणं न हेतुरित्यहेतोस्तस्य हेतुत्वेन संभावना हेतूत्प्रेक्षा विक्षेपणस्य विषयस्य सत्त्वात्सिद्धविषया । चन्द्रपद्मविरोधे स्वाभाविके नायिकावदनकान्तिप्रेप्सा न हेतुरिति तत्र तद्धेतुत्वसंभावना हेतूत्प्रेक्षा वस्तुतस्तदिच्छाया अभावादसिद्धविषया । मध्यः स्वयमेव कुचौ धरति नतु कनकदामबन्धत्वेनाध्यवसिताया बलित्रयशालिताया बलादिति मध्यकर्तृककुचधृतेस्तत्फलत्वेनोत्प्रेक्षा सिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा । जलजस्य जलावस्थितेरुद वसतपरत्वेनाध्यवसितायाः कामिनीचरण सायुज्यप्राप्तिर्न फलमिति तस्या गगनकुसुमायमानायास्तपःफलत्वेनोत्प्रेक्षणादसिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा । अनेनैव क्रमेणोदाहरणान्तराणि द बालेन्दुवक्राण्यविकासभावाद्वभुः पलाशान्यतिलोहितानि । सद्यो वसन्तेन समागतानां नखक्षतानीव वनस्थलीनाम् ॥ 'केचिदिति तम ( तन्मते ? ) इति चास्वरसोद्भावनम् । तद्वीजं तु तमोनभसोः कर्तृत्वेन विषयत्वेन च वारद्वयमन्वयक्लेशः । ' ( चन्द्रिका पृ० ३५ ) 'रक्तौ तवांधी' इत्यादि पद्यार्ध सिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा का उदाहरण है । सुन्दरी के दोनों पैर स्वतः लाल हैं ( उनकी ललाई स्वतः सिद्ध है ), अतः उनकी ललाई का कारण - पृथ्वी पर संचरण करना नहीं है, इस प्रकार पृथ्वीसंचरण के चरणरक्तत्व के कारण न होने पर भी यहाँ उसमें कारणत्व की संभावना की गई है, अतः यह हेतू प्रेक्षा है । यहीं विक्षेपण रूप विषय के प्रयोग के कारण यह सिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा है । 'वन्मुखाभेच्छ्या' इत्यादि पद्यार्ध असिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा का उदाहरण है । यहाँ चन्द्रमा तथा कमल का विरोध स्वाभाविक है, इस विरोधिता में नायिका के वदन की शोभा को प्राप्त करने की इच्छा कारण नहीं है, इतना होने पर भी इस इच्छा में उस विरोध के हेतुत्व की संभावना की गई है, अतः यहाँ हेतूत्प्रेक्षा है । कवि ने यहाँ चन्द्रमा की इस इच्छा (विषय) का, कि वह नायिका की वदन कांति को प्राप्त करना चाहता है, प्रयोग नहीं किया है, अतः यह असिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा है । 'मध्यः किं' इत्यादि पद्यार्ध सिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा का उदाहरण है । नायिका का मध्यभाग स्वयं ही स्तनों को धारण किये है, इसका कारण सोने को जंजीर के रूप में अध्यवसित ( अतिशयोक्ति अलंकार के द्वारा निगीर्ण) त्रिवलि का मध्यभाग में होना नहीं, इतना होते हुए भी कवि ने मध्यभाग के द्वारा कुचों के धारण करने को त्रिवलि ( कनकदाम) के होने का फल माना है । इस प्रकार यहाँ सिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा है । 'प्रायोऽब्ज' आदि पद्यार्ध असिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा का उदाहरण है । यहाँ कवि ने कमल के स्वभावतः पानी में रहने को, जलवासवाली तपस्या के द्वारा अध्यवसित ( निगीर्ण) किया है । कमल की इस तपस्या का फल कामिनीचरणसायुज्यप्राप्ति हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह तो गगनकुसुम की भाँति असिद्ध है, फिर भी कवि ने उसे तपस्या के फल के रूप में संभावित किया है, अतः असिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा है। I यहाँ इसी क्रम से दूसरे उदाहरण उपन्यस्त कर रहे हैं । 'विकसित न होने के कारण बालचन्द्रमा के समान टेढ़े, अत्यधिक रक्त पलाशमुकुल ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो वसन्त ( नायक ) के साथ रतिक्रीडा करने के कारण वनपयों ( नायिकाओं) के ताजा नखक्षत हों ।'
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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