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________________ उत्प्रेक्षालङ्कारः निमित्तेनाञ्जनवर्षणकर्तृतादात्म्योत्प्रेक्षा, चेत्युत्प्रेक्षाद्वयमुक्तविषयमेवास्तु । मैवम् ; लिम्पति-वर्षतीत्याख्यातयोः कर्तृवाचकत्वेऽपि 'भावप्रधानमाख्यातम्' इति स्मृते. र्धात्वर्थक्रियाया एव प्राधान्येन तदुपसर्जनत्वेनान्वितस्य कर्तुरुत्प्रेक्षणीयतया अन्यत्रान्वयासंभवात् । अत एव [ आख्यातार्थस्य कर्तुः क्रियोपसर्जनत्वेनान्यत्रान्वयासंभवादेव ] अस्योपमायामुपमानतयान्वयोऽपि दण्डिना निराकृतः'कर्ता यापमानं स्यान्न्यग्भूतोऽसौ क्रियापदे । स्वक्रियासाधनव्यग्रो नालमन्यव्यपेक्षितुम् ।।' ( काव्यादर्श २।२३० ) इति । केचित्तु-तमोनभसोविषययोस्तत्कर्तृकलेपनवर्षणस्वरूपधर्मोत्प्रेक्षेत्याहुः । तन्मते स्वरूपोत्प्रेक्षायां धर्युत्प्रेक्षा धर्मोत्प्रेक्षा चेत्येवं द्वैविध्यं द्रष्टव्यम् । चर• पूर्वपक्षी इन उदाहरणों में अनुक्तविषयत्व मानने पर आपत्ति करता है, उसके मत से यहाँ उक्तविषयता ही मानना चाहिए। पूर्वपक्षी का मत है कि यहाँ अंधकार की लेपनक्रिया के कर्ता के साथ तादात्म्योत्प्रेक्षा व्यापनरूप धर्मसंबंध के कारण हो रही है, इसी तरह आकाश से पृथ्वी तक गहरे कालेपन के व्याप्त होने के कारण इस धर्मसंबंध से कजलवर्षणक्रिया के कर्ता के साथ तादात्म्योत्प्रेक्षा हो रही है, इस प्रकार दोनों स्थानों पर अन्धकार की उक्त विषयता मानकर दोनों उत्प्रेक्षाओं को उक्तविषया माना जा सकता है । सिद्धान्तपक्षी इस मत से सहमत नहीं। वह कहता है, ऐसा नहीं हो सकता । पूर्वपक्षी का मत तभी माना जा सकता है जब कि 'तमः' का अन्वय अन्यत्र हो सके, ऐसा संभव नहीं है, ग्योंकि हम देखते हैं कि यद्यपि 'लिम्पति' तथा 'वर्षति' ये दोनों क्रियाएँ ( आख्यात)हैं तथा इनके कर्ता का स्पष्ट रूप से उपादान होता है, तथापि निरुक्तकार के 'भावप्रधानमाख्यातं इस वचन के अनसार धात्वर्थक्रिया काही प्राधान्य मानना होगा (कर्ता का नहीं), कर्ता यहाँ क्रिया का उपस्कारक बनकर आया है तथा उस क्रिया के अंगरूप में वह भी उस्प्रेक्षा का विषय हो जाता है। इसलिए क्रिया के अंग होने के कारण इस स्थल में कर्ता (तमः)का अन्यत्र अन्वय न हो सकेगा। इसलिए दण्डी ने, उन स्थलों पर जहाँ कर्ता क्रिया का अंग हो गया है, तथा क्रिया के सादृश्य की प्रतीति कराई जाती है, वहाँ कर्ता का उपमान के रूप में अन्वय होना नहीं माना है। जैसा कि कहा गया है:-'यदि कोई कर्ता उपमान हो, किंतु वह क्रियापद का गौण (न्यग्भूत)हो जाय, वहाँ वह अपनी क्रिया की सिद्धि में ही संलग्न होता है तथा उससे भिन्न इतर कार्य (उपमासिद्धि) की सिद्धि में समर्थ नहीं होता। (इस प्रकार निराकांक्ष होने के कारण उपमान के रूप में उसका अन्वय नहीं हो पाता।) टिप्पणी-यहाँ अप्पय दीक्षित ने अलंकारसर्वस्वकार रुय्यक के इस मत का खण्डन किया है कि 'अन्धकार में ही लेपन क्रिया का कर्तृत्व सम्भावित किया गया है। एतेन' तमसि 'लेपनकर्तृस्वमुत्प्रेक्ष्यम्' इति अलंकारसर्वस्वकारमतमपास्तम्' ( चन्द्रिका पृ० ३५) कुछ विद्वानों के मत से यहाँ अन्धकार तथा आकाश रूप विषयों की अन्धकारकर्तृकलेपन तथा वर्षणरूप स्वरूपधर्मोस्प्रेक्षा की गई है। इन लोगों के मत से स्वरूपोस्प्रेक्षा दो तरह की होगी, धर्युत्प्रेक्षा तथा धर्मोस्प्रेक्षा। टिप्पणी-चन्द्रिकाकार के मतानुसार 'केचित्' इस पद से ग्रन्थकार का अनभिमत व्यक्त होता है। इसका कारण यह है कि इस सरणि में 'तमस्' तथा 'नभस' का दो बार अन्वय करन पर एक बार कर्ता के रूप में, दूसरी बार विषय के रूप में।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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