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________________ अपहत्यलकारः ३३ सीत्कारं शिक्षयति व्रणयत्यधरं तनोति रोमाञ्वम् । नागरिकः किं मिलितो ? नहि नहि, सखि ! हैमनः पवनः । इदमर्थयोजनया तथ्यनिहवे उदाहरणम् । शब्दयोजनया यथा पझे! त्वन्नयने स्मरामि सततं भावो भवत्कुन्तले . नीले मुह्यति किं करोमि महितैः क्रीतोऽस्मि ते विभ्रमैः । , इत्युस्वप्नवचो निशम्य सरुषा निर्भसितो राधया कृष्णस्तत्परमेव तद्वचपदिशन् क्रीडाविटः पातु वः॥ सर्वमिदं विषयान्तरयोजते उदाहरणम् । विषयैक्येऽप्यवस्थाभेदेन योजने यथा वदन्ती जारवृत्तान्तं पत्यौ धूर्ता सखीधिया । है क्या, प्रिय, उस सखी से तथ्य का गोपन करने के लिए वह 'नहीं, नपुर' यह उत्तर देकर अपनी उक्ति का भिन्न तात्पर्य बता देती है । अतः यहाँ छेकापह्नति है। इसी का दूसरा उदाहरण यह है : कोई नायिका नर्मसखी से नायक के मिलने के विषय में कह रही है। वह सीत्कार सिखाता है, अधर को व्रणयुक्त बना देता है तथा रोमांच प्रकट करता है।' इसे सुनकर अन्य सखी प्रिय के विषय में शंकाकर पूछ बैठती है-क्या नागरिक मिलने पर ऐसा करता है ? नायिका तथ्य गोपन करने के लिए कहती है-'नहीं सखि, नहीं, हेमन्त का शीतल पवन ऐसा करता है।' इन दोनों उदाहरणों में अर्थयोजना के द्वारा तथ्य का गोपन किया गया है। कहीं-कहीं शब्दयोजना (शब्दश्लेष) के द्वारा ऐसा किया जाता है, जैसे कृष्ण स्वप्न के समय लक्ष्मी की याद कर कह उठते हैं-'हे लक्ष्मी, मैं तेरे नेत्रों का सदा स्मरण किया करता हूँ, तुम्हारे नीले केशपाश में मेरा मन रमा रहता है ( मेरा भाव मोहित रहता है), मैं क्या करूँ, तुम्हारे अनर्घ (महित) विलासों ने मुझे खरीद लिया है, मैं तुम्हारा दास हूँ।' कृष्ण की इन स्वप्न की बातों को सुन कर क्रोधित राधा उनकी भर्त्सना करती है, किंतु कृष्ण उन वचनों को राधापरक (राधा के प्रति ही कथित) बता देते हैं तथा इसका अर्थ यों करते हैं-(हे राधे,) मैं कमल के समान तेरे नेत्रों का सदा स्मरण किया करता हूँ.....।' इस प्रकार चतुरता से वास्तविकता को छिपाते हुए क्रीडाविट कृष्ण आप लोगों की रक्षा करें। - यहाँ 'पद्म' पद में श्लेष है, यह लिंग, वचन तथा विभक्तिगत श्लेष है। लक्ष्मीपक्ष में यहाँ स्त्रीलिंग, संबोधन विभक्ति तथा एकवचन का रूप है, राधापक्ष में यह 'नयने' का उपमान है, तथा नपुंसक लिंग, द्वितीया विभक्ति तथा द्विवचन का रूप है। इस प्रकार अपनी उक्ति की राधापरक व्याख्या कर कृष्ण वास्तविकता को छिपाते हैं, अतः यहाँ शब्दयोजनागत छेकापह्नति है। ये तीनों उदाहरण अन्य विषय में प्रस्तुत उक्ति की योजना करने के हैं। कभी-कभी विषय के एक ही होने पर भी अवस्थाभेद के द्वारा एक अवस्था का गोपन किया जाता है, जैसेकोई धूर्त नायिका भ्रांति से पति को सखी समझ कर अपने जार का वृत्तान्त सुना ३ कुव०
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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