SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुवलयानन्दः शासकृतः, अवितर्कितसंभवमिति साधारणधर्मस्यानुपादाने प्रत्ययार्थोपमायां धर्मोपमानलोपः । समासार्थोपमायां धर्मोपमानवाचकलोप इति सूक्ष्मया दृष्टयावधारितव्यम् । एतेषामुदाहरणान्तराणि विस्तरभयान्न लिख्यन्ते ।। ७-६॥ २अनन्धयालङ्कारः उपमानोपमेयत्वं यदेकस्यैव वस्तुनः । इन्दुरिन्दुरिव श्रीमानित्यादौ तदनन्वयः ॥ १० ॥ एकस्यैव वस्तुन उपमानोपमेयत्ववर्णनमनन्वयः। वर्ण्यमानमपि स्वस्य स्वेन साधये नान्वेतीति व्युत्पत्तेः। अनन्वयिनोऽप्यर्थस्याभिधानं सदृशान्तर व्यवच्छेदेनानुपमत्वद्योत नाय । 'इन्दुरिन्दुरिव श्रीमान्' इत्युक्ते श्रीमत्त्वेन चन्द्रस्य नान्यः सदृशोऽस्तीति सदृशान्तरव्यवच्छेदो लक्ष्यते । ततश्च स्वस्य स्वेनापि सादृश्यासंभवादनुपमेयत्वे पर्यवसानम् ॥ यथा वाऊपर की पंक्ति में से 'अवितर्कितसंभव' रूप साधारणधर्म को हटा देने पर ( उसका अनुपादान करने पर) छ प्रत्यय वाली प्रत्ययार्थोपमा में धर्मोपमान लोप होगा । (तदेतत् काकतालीयमभवम्कि प्रवीमि ते' में 'एतत्' उपमेय है, तथा 'काकतालीयं' में छ प्रत्यय के कारण वाचक का उपादान हो गया है, पर पूर्वोक्त रीति से उपमान का लोप है, साथ ही यहाँ कोई साधारण धर्म नहीं है, अतः यहाँ धर्मोपमानलुप्ता उपमा है।) -धर्मोपमानवाचकलुप्ताः-(इसका उदाहरण भी 'तदेतत्काकतालीयमभवरिक ब्रवीमि ते' ही है।) यहाँ पूर्वोक्त रीति से समासार्थोपमा मानने पर वाचक तथा उपमान का लोप है ही, 'अवितर्कितसंभवं' का प्रयोग न करने के कारण साधारणधर्म का भी लोप हो गया है, इस प्रकार धर्मोपमानवाचकलुप्ता उपमा है, यह सूक्ष्म दृष्टि से देखा जा सकता है। __इन आठ प्रकार की उपमाओं के अन्य उदाहरण विस्तार के भय से नहीं दिये जा रहे हैं। २. अनन्वय अलङ्कार १०-जहाँ एक ही वस्तु (वर्ण्यमान ) उपमान तथा उपमेय दोनों हो, वहाँ अनन्वय होता है, जैसे 'चन्द्रमा चन्द्रमा की ही तरह शोभा वाला है' इस उदाहरण में। जहाँ एक ही वस्तु का उपमानव तथा उपमेयत्व वर्णित किया जाय, वहाँ अनन्वय होता है। अनन्वय शब्द की व्युत्पत्ति यह है कि काव्य में वर्ण्यमान होने पर भी किसी वस्तु की स्वयं के ही साथ तुलना अन्वित नहीं हो पाती, अतः वह अनन्वय (न अन्वेतीति अनन्वयः) है। भाव यह है, यद्यपि एक ही वस्तु स्वयं अपना ही उपमान नहीं बन सकती, तथापि कवि इसका प्रयोग करते देखे जाते हैं। यद्यपि यह साधर्म्यरूप अर्थ (अन्वय) घटित नहीं होता तथापि कवि इसका प्रयोग इसलिए करते हैं कि वे उपमेय के सदृश अन्य वस्तु (उपमान) का व्यावर्तन कर उस वस्तु (उपमेय) की अनुपमता की व्यंजना कराना चाहते हैं। 'इन्दुरिन्दुरिव श्रीमान्' इस उदाहरण से यह भाव अभीष्ट है कि शोभा में कोई भी अन्य पदार्थ चन्द्रमा के समान नहीं है, और इस प्रयोग से अन्य सदृश वस्तु का निराकरण किया गया है। इस प्रकार स्वयं अपने ही साथ किसी वस्तु क, सादृश्य असंभव होने के कारण अनन्वय अलङ्कार उपमेय की अनुपमेयता में पर्यवसित हो जाता है । अथवा जैसे इस उदाहरण में:
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy