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निर्वाण है । परन्तु जान पड़ता है कि इतर स्थिरात्मवादी दार्शनिकोंने जब आक्षेप किया कि तुम्हारा यह निर्वाण तो मात्र अभावात्मक है, तब क्या ऐसा समझना कि बुद्धने निर्वाण प्राप्त किया इसका अर्थ अभाव रूप बने ? कुछ तो ऐसे आक्षेप के उत्तररूपसे और कुछ स्वयं संगति बिठाने के परिणामरूपसे वैभाषिकने निर्वाणका स्वरूप ऐसा उपस्थित किया कि जो केवल अभावरूप नहीं कहा जा सकता। उन्होंने कहा कि दुःख और उसके कारणके उच्छेदसे जो असंस्कृत निर्वाण समझा जाता है वह सिर्फ़ अभावात्मक नहीं है, पर एक भावात्मक तत्त्व हैं । उन्होंने इस तरह निर्वाण या निरोध सत्यको दुःखोंके अभाव से उपलक्षित एक असंस्कृत भावतत्त्वरूप सूचित किया। उनकी यह मान्यता या कल्पना बहुत कुछ अंशोंमें न्याय-वैशेषिकसम्मत अपवर्गकी कल्पनासे मिलती-जुलती है । आश्चर्य नहीं कि इस बात में प्राचीन बौद्धोंपर न्याय-वैशेषिक मान्यताका असर पड़ा हो ।
श्रध्यात्मविचारणा
बुद्धने निर्वाणको अव्याकृत कहा था और उसका कोई स्पष्ट निरूपण नहीं किया था । दूसरी तरफ़ आस-पासके इतर दार्शनिक निर्वाणके स्वरूपका अपने-अपने ढंग से स्पष्ट निरूपण करते थे । इससे बौद्ध विचारकों को भी निर्वाणके बारेमें कुछ-न-कुछ अपने ढंग से निरूपण किये बिना चैन कैसे पड़ सकता था ? इस बारे में बुद्ध के कथनका कोई निर्विवाद आधार सम्मुख न होने से बौद्ध विद्वान् कल्पना करने में स्वतंत्र थे । उन्हें एक तरफ़से अपनी बौद्ध प्रणाली बचानेकी चिन्ता और दूसरी तरफ़से दार्शनिकों के आक्षेपोंका संगत उत्तर देनेकी चिन्ता । इस मानसिक संघर्षने बौद्ध परम्परामें अनेक विद्वानोंको भिन्न-भिन्न तरहकी कल्पना करने के लिए प्रेरित किया। उनमें से, जिसमें महासांघिक वात्सीपुत्रीय आदि थे ऐसी हीनयान शाखा की ओर अभिरुचि रखनेवाले कुछ लोग सौत्रा -