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________________ ज्यान हूँ ऐसी इच्छा मेरे निकटके मित्र और श्री भोलाभाई जेशिंगमाई विद्याभवनके विद्वान् अध्यक्ष श्री रसिकभाईने १९४८ से पहले प्रदर्शित की थी। डॉ० आर० डी० रानडेने उक्त व्याख्यानमालाके उद्घाटनके अवसरपर सर्वप्रथम व्याख्यान दिये। वे व्याख्यान अभी हाल ही में प्रकाशित हुये हैं। उनके पश्चात् मैं ही व्याख्यान दूं ऐसी श्री रसिकभाईकी इच्छा थी। उनकी इच्छाके अनुसार मैं सन् १९४८ से इस बारे में कुछ वाचन-चिन्तन करता रहा, पर भीतर ही भीतर मेरे मनमें एक संस्कार पड़ा था। वह यह कि मेरी जगह गुजरातके बाहरके किसी दूसरे विशिष्ट व्यक्तिका नाम सूचित करूँ और इस तरह श्री रसिकभाईका मन मना लूँ । आखिरकार कलकत्ता विश्वविद्यालयके सर आशुतोष ज्ञानपीठके प्राध्यापक डॉ० सातकोड़ी मुकर्जीने यहाँ पाना मान्य रखा। सन् १९५३ और १९५४ दोनों वर्षों में निश्चित रूपसे सूचित समयपर वे न पा सके तब स्व. दादा मावलंकर और श्री रसिकमाईने मेरे सिरपर यह सेहरा बाँधा। ___मैं सन् १६४६ के बाद एक तरहसे निश्चिन्त-सा था कि ये व्याख्यान अब मुझे नहीं देने पड़ेंगे, पर आखिरकार १९५५ में मैं ही व्याख्यान दूं ऐसा तय हुआ। मैं तनिक अकुलाया तो सही, पर मेरी मानसिक तैयारी तो थी ही; अतः मैंने यथाशक्ति और यथासमय वह काम निबटाया। इस समय मुझे मेरा पहलेका लिखा हुआ उपयोगी हुआ। वह था मेरे प्रथम व्याख्यानका मसौदा । मैंने १६४८-४९ के दरमियान कभी प्रथम व्याख्यानका खर्रा लिखा लिया था। वह था तो कच्चा खर्रा, पर मेरी पुत्रीकल्प शारदा पण्डित बी० ए०, जो उस समय मुझे अनेक विषयों की किताबें सुनाती और मेरा लेखनकार्य करती थी, ने अपनी सूझसे ही मेरे उस अशोधित लेखकी एक नकल तैयार कर रखी थी। वह सुरक्षित भी रही थी, अतः एक तरहसे पहले व्याख्यानका कार्य तो मानो निबट. सा गया था। सन् १९५५ के ग्रीष्ममें यह तय हुआ कि दिल्लीसे
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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