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________________ परमात्मतत्व मान्यताओं में एक लक्षण समान दृष्टिगोचर होता है और वह है आत्मतत्त्वकी कूटस्थनित्यताका । कोई जीवात्मा और परमात्माका भेद माने या कोई सर्वथा अभेद माने या भेदाभेद माने; इसी तरह कोई आत्माको विभु माने या अणु तथा कोई आत्माका बहुत्व स्वीकार करे या कोई न करे, फिर भी वे सब आत्मतत्त्वको किसी-न-किसी रूपमें कूटस्थ ही मानते हैं और उसी पक्षका समर्थन करते हैं । इतनी समान भूमिका है सही, पर दूसरी बहुतसी बातोंमें उन दर्शनों के बीच मतभेद होनेसे मोक्षके स्वरूपके बारेमें उनमें प्रबल मान्यताभेद चला आ रहा है। हम यहाँपर उसे सक्षेपमें देखें। ___ कणादका वैशेषिकदर्शन और उसका अनुसरण करनेवाला अक्षपादका न्यायदर्शन ये दोनों आत्माके स्वरूपके बारेमें एकमत हैं। दोनों आत्माको कूटस्थनित्य तथा देहभेदसे भिन्न मानते हैं, और अपवर्ग या मुक्ति भी स्वीकार करते हैं। कपिलका सांख्य-दर्शन और उसका अनुगामी योगदर्शन देहभेदसे आत्मभेद माननेके अतिरिक्त आत्माका कूटस्थनित्यत्व स्वीकार करते हैं। इसमें यदि अपवाद है तो वह इतना ही कि चौबीस तत्त्व माननेवाला सांख्यका प्राचीन स्तर प्रकृतिसे भिन्न पुरुषों के अस्तित्वको स्वीकार नहीं करता। इससे वह जीवतत्व, पुनर्जन्म और मोक्ष आदिकी विचारसरणी प्रकृतितत्त्वमें घटाता था। वह प्रकृतितत्त्वको कूटस्थ. नित्य नहीं, किन्तु परिणामिनित्य मानता था, ऐसा प्राचीन वर्णनसे प्रतीत होता है । औपनिषद दर्शनकी अनेक शाखाएँ हैं जिनमें शांकर, रामानुज, मध्व, वल्लभ आदि मुख्य हैं। ये सभी शाखाएँ उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीताका समान भावसे आधार लेती हैं, फिर भी उन आधारोंके तात्पर्यमें उनका मतभेद है। शकर केवलाद्वैतवादी और एक अखण्ड ब्रह्मतत्त्ववादी है तथा
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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