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प्रस्तावना तीन भूमिकाका फल -
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मेरे ये तीन व्याख्यान, जो मेरी श्रवन, मनन एवं निदिध्यासनकी भूमिकाके फल जैसे हैं, पुस्तकरूपसे प्रकाशित हो रहे हैं। मैंने जो-जो श्रवण किया उसे युक्ति या न्यायसे परखनेका प्रयत्न किया है और कुछ गहरेमें उतरकर स्वतंत्र चिन्तनका भी यत्किंचित् प्रयास किया है । इसीलिए मैंने अपनी इस पुस्तकको 'तीन भूमिकाका फल' माना है 1
परन्तु ये तीन भूमिकाएँ भी मेरी शक्तिकी मर्यादा में ही आती हैं । अन्तिम साक्षात्कार की भूमिकाको तो मैं छूतक नहीं पाया, अतः इन व्याख्यानोंमें जो विचार प्रस्तुत किए गये हैं वे साक्षात्कारकी कोटिके नहीं हैं। वे चाहे जैसे हों, परन्तु मैं तो उन्हें परोक्ष कोटिका ही मानता हूँ; और अन्तिम अनुभव की कसौटोपर कसे न जायें तबतक उन्हें साक्षात्कारका नाम भी नहीं दिया जा सकता । पाठक इसी दृष्टिसे मेरी यह पुस्तक पढ़ें और उसपर विचार करें ।
प्रस्तुत पुस्तक में तीन व्याख्यान हैं- पहला श्रात्मतत्वविषयक, दूसरा परमात्मतत्त्व विषयक और तीसरा साधना-विषयक | इन तीनों व्याख्यानोंमें मैंने उस-उस विषय के बारेमें विचारका क्रमविकास दिखलानेका तथा यथासम्भव दार्शनिक विचारोंकी तार्किक संगति बिठानेका प्रयत्न किया है। साथ ही, भिन्न-भिन्न भारतीय दर्शन किस-किस तरह भिन्न प्रतीत होनेपर भी अन्तमें एकरूप से हो जाते हैं यह भी तुलनाद्वारा दिखलाया है । जहाँ सम्भव और शक्य था वहाँ उस वक्तव्यको स्पष्ट करने, उसके आधार दिखलाने और उस बारेमें विशेष जानने के इच्छुकको सामग्री प्रस्तुत करनेके लिए पादटिप्पण भी दिये हैं ।