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आत्मतत्त्व आविर्भावों द्वारा एक ही चेतनमें व्यावहारिक जीवभेदवादकी उपपत्ति सरलतासे की जा सकती है। ऐसा मालूम होता है कि ऐसी ही किसी विचारसरणीमेंसे चेतनाद्वैतवाद अस्तित्व में आया होगा । एक ही कूटस्थ एवं विभु चेतनतत्त्व होनेपर भी वह नाना सात्त्विक बुद्धियोंके संसर्गके कारण देहभेदसे नाना भासित होता है । वस्तुतः जो सात्त्विक बुद्धिभेद है वही चेतना या ब्रह्ममें आरोपित होता है। जिस प्रकार प्रधान या बुद्धिका बन्ध-मोक्ष पुरुषोंमें आरोपित माना जाता है उसी प्रकार सात्त्विक बुद्धियोंका नानात्व भी एक ही व्यापक एवं कूटस्थ चेतनमें आरोपित करके व्यावहारिक जीवभेदके अनुभवकी तथा बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था इस भूमिकाने सिद्ध की । यहींसे आत्माद्वैतवाद या चेतनाद्वैतवादकी नींव पड़ती है।
विचारकी उपर्युक्त भूमिकामें प्रधानाद्वैत और चेतनाद्वैत ये दो अद्वैत तो सिद्ध हुए, पर साथ ही यहींसे एक बड़ी भारी उलझन भी पैदा हुई; और वह यह कि एक ही प्रधान अपने नाना परिणामों द्वारा यदि नाना अनुभवोंकी उपपत्ति करा सकता है और इसके लिए पुरुष-बहुत्व माननेकी आवश्यकता नहीं रहती, तो फिर आगे बढ़कर ऐसा क्यों न माना जाय कि एक ही अद्वैत हो और उसके द्वारा समग्र व्यवस्था घटाई जाय ? पहले तत्त्वाद्वैतस्पर्शी सांख्यभूमिका मूलमें एक तत्त्व मानकर और उसमें जड़ एवं चेतनकी दो शक्तियाँ कल्पित करके उन शक्तियोंके द्वारा जड़-चेतन सृष्टिकी उपपत्ति करती थी । अब पृथक् चेतनतत्त्व तो माना ही गया था, अतः मोक्षकी दृष्टिसे प्रधानाद्वैत-तत्त्वैकत्ववादकी ओर पीछेहट करना इष्ट न समझा गया। इससे कई तत्त्वचिन्तकोंने चैतनाद्वैतको ही माना और प्रधानाद्वैतको वास्तविक सत्कोटिका न मानकर उसे एक अनिर्वचनीय माया या अविद्यारूप कहा और उसके द्वारा बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था घटा