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अध्यात्म विचारणा
ध्यानाभ्यास तथा यम आदि अन्य उपायोंके अनुष्ठान के
धर्मकीर्ति जो वस्तु संक्षेप में कही उसका प्रतिस्पष्ट विस्तार शान्तरक्षित तथा उसके शिष्य कमलशीलने इस प्रकार किया है—
प्रत्यक्षीकृत नैरात्म्ये न दोषो लभते स्थितिम् ।
तद्विरुद्धतया दीप्रे प्रदीपे तिमिरं यथा । - तत्त्वसंग्रह श्लो० ३३३८ इसकी व्याख्या करते हुए कमलशील कहता है
अतएव क्लेशगणोऽत्यन्तसमुद्धृतोऽपि नैरात्म्यदर्शन सामर्थ्य मस्योन्मूलयितुमसमर्थः । श्रागन्तुकप्रत्ययकृतत्वेनाऽदृढत्वात् । नैरात्म्यं तु स्वभावत्वात् प्रमाण सहायत्वाच्च बलवदिति तुल्येऽपि विरोधित्वे श्रात्मदर्शने प्रतिपक्षो व्यवस्थाप्यते । न चाऽऽत्मदर्शनं तस्य तद्विपरीतत्वात् ।
- तत्त्वसंग्रहपंजिका पृ० ८७३ ईश्वरकृष्णकी ६४ वीं सांख्यकारिका इस प्रकार हैएवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम् । विपर्ययाद्विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥
इसकी व्याख्या करते हुए वाचस्पति मिश्रने प्रश्न उठाया है कि तत्वज्ञान से मिथ्याज्ञानका नाश होनेपर भी पुनः अनादि मिथ्याज्ञानकी वासना इस तत्त्वज्ञानका निवारण क्यों न करेगी ? इसका जो उत्तर सांख्यतत्त्वकौमुदी में दिया गया है वह न केवल धर्मकीर्ति तथा शान्तरक्षित के उत्तर के समान ही है, श्रपितु वाचस्पति मिश्र ने अपने कथन के समर्थन में 'यदाहुा पि' कहकर जो कारिका उद्धृत की है वह उपर्युक्त प्रमाणवार्तिककी ही कारिका है । श्रत्र हम वाचस्पति मिश्रका पूर्वोत्तर पक्ष उन्हींके शब्दों में देखें—
स्यादेतत् — उत्पद्यतामीदृशाभ्यासात् तत्त्वज्ञानं तथाप्यनादिना मिथ्याज्ञानसंस्कारेण मिथ्याज्ञानं जनितव्यम् । तथा च तन्निबन्धनस्य संसार - स्यानुच्छेदप्रसंग इत्यत उक्तं 'केवलम्' इति - विपर्ययेणाऽसम्भिन्नम् ।