________________
४
श्रध्यात्मविचारणा
ही कुछ ऐसा है कि कोई एक मनुष्य एक विषय में न तो सर्वदा रस ही ले सकता है और न उसमें लम्बे अरसे तक तल्लीन ही रह सकता है । एक ही समय में भिन्न-भिन्न स्वभाव एवं भिन्न भिन्न योग्यतावाले अभ्यासियोंकी साधना चढ़ते-उतरते क्रममें तथा स्थूल, सूक्ष्म व सूक्ष्मतर कही जा सके ऐसे विविध विषयों में हमेशा चलती आई है । हम यह भी देखते हैं कि जो आर्थिक व औद्योगिक - जैसे प्रवृत्तिक्षेत्रों में गलेतक डूबे रहते हैं वे भी तनिक आराम और शान्तिकी साँस लेनेके लिए समय-समयपर भजनकीर्तन, यात्रा या सन्त-समागम के बहाने, न जाने क्यों, किसी गूढ़ शक्तिकी सहायता और सहारा लेनेका प्रयत्न करते हैं । कामधन्धेसे निपटनेपर, दिन में समय न मिले तो रात में ही सही, असंख्य स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी भाषा में और अपने-अपने विशिष्ट ढंगसे ईश्वर या परमात्माकी महत्ता तंबूरेके मधुर स्वर के साथ आधी रात तक ही नहीं, पर कई बार तो रातभर गाते हैं और उससे अन्य प्रकार से प्राप्त न हो सके ऐसा एक तरह का अद्भुत सन्तोष प्राप्त करते हैं । रेडियो, सिनेमा और नाटककी विश्राम - भूमिवाले बड़े-बड़े शहरोंके इधर-उधर के कोनों व उपनगरों में आत्मा-परमात्मा चिन्तनकी कुछ झलक प्रदर्शित करनेवाले भजनोंकी धुन अपढ़ और स्थूलजीवी समझे जानेवाले लोगोंका सनातन आश्वासन रही है। हजारों नगरों और लाखों गाँवों के उद्योगी व परिश्रमी जीवनको रोज नई-नई ताजगी देनेवाले जो अनेक साधन हैं उनमें ईश्वर या आत्मा-परमात्मा के भजन एवं स्मरणका एक ख़ास स्थान है । इससे ऐसा मान लेना भ्रान्त है कि दूसरे ज्वलन्त और तत्काल ध्यान खींचनेवाले प्रश्नोंके सामने रहते हुए आत्मा-परमात्मा-जैसे गूढ़ विषयोंकी चर्चा और विचारणा अप्रासंगिक तथा अनावश्यक है ।