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अध्यात्मसाधना
१०६ चित्तवृत्तिके निरोधको योग' कहकर उपर्युक्त वस्तुस्थितिका ही निर्देश किया है । वृत्तियाँ चित्तका किसी-न-किसी प्रकारका ज्ञानरूप व्यापार है। ये वृत्तियाँ जब अविद्या आदि क्लेशोंसे अनुरंजित होती हैं तब उन्हें क्लिष्ट कहा जाता है तथा जब उनपर क्लेशोंकी छाया नहीं होती तब उन्हें अक्लिष्ट कहा जाता है । साधना करते समय योगीको सर्वप्रथम चित्तमेंसे क्लेशोंको निर्बल कर धीरे-धीरे उन्हें दूर करना पड़ता है । क्लेशोंका सूक्ष्म रूपमें भी
आविर्भाव न होने पावे इसीलिए ध्यानाभ्यास किया जाता है। क्रियायोगसे निर्बल तथा ध्यानयोगसे क्षीण हुए क्लेश वृत्तिसह निर्मल तभी होते हैं जब विदेहमुक्तिकालमें चित्त अपना पृथक अस्तित्व खोकर प्रधानरूप मूल कारणमें विलीन होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि चित्तके साथ स्थूल देहका भी विलय होता है। योगशास्त्रमें निरूपित क्लेश तथा वृत्तिहानिकी इस प्रक्रियाका तत्त्वार्थसूत्र में किस प्रकार निरूपण किया गया है वह अब हम देखें।
तत्त्वार्थसूत्रमें 'योग' शब्द चित्तवृत्तिनिरोधके अर्थमें नहीं, अपितु कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रवृत्तिके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। यही प्रवृत्ति जैन-परिभाषामें आस्रव कहलाती है। जिस प्रकार योगशास्त्र में क्लिष्ट और अक्लिष्ट ये दो प्रकारकी वृत्तियाँ १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः
-योगर्शन १.२ २. वृत्तयः पंचतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः । -योगदर्शन १.५ ३. समाधिभावनार्थः क्लेशतनुकरणायश्च ।
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः । ध्यानहेयास्तद्वत्तयः।
-योगदर्शन २. २,१०,११ ४. कायवाङ्मनःकर्म योगः।
-तत्त्वार्थसूत्र ६.१ ५. स ात्रवः।
-तत्त्वार्थसूत्र ६.२