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अध्यात्मसाधना
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(२) अपनेसे दूर-दूरतर-दूरतम प्रदेश अथवा समयमें किसी अन्यपर आये हुए भारी संकटके समाचारसे मानवचित्तको कभीकभी अपने खुदके दुःखानुभव जैसा ही गहरा आघात पहुँचता है-इस प्रकारका सबका अनुभव है। देह, इन्द्रिय आदि मूर्त संघात परस्पर अत्यन्त भिन्न होते हैं, अतः उनमें कोई वास्तविक अनुसन्धान नहीं होता । इसलिए दूसरोंके दुःखका अनुभव करनेवाला और देहादिसे भिन्न कोई अनुसन्धानकारी तत्त्व माने बिना इसका खुलासा नहीं किया जा सकता। वैसा अनुसन्धानकारी तत्त्व ही चैतन्य है।
(३) पहलेके किये हुए सदाचरणोंके स्मरणसे उत्तरकालमें कभी आन्तरिक हर्ष तथा सुखका अनुभव होता है तो पहलेके दोषाचरणोंके स्मरणसे विषाद तथा दुःखका भी अनुभव होता है। यह एक व्यक्तिगत नैतिक मूल्य है। इसी तरह जीवनमें सामुदायिक नैतिक मूल्य भी हैं। इन समस्त मूल्योंका वास्तविक आधार स्वतंत्र चेतनतत्त्वके अतिरिक्त और कुछ हो नहीं सकता।'
इन और इन जैसी अनेक युक्तियोंसे मानवबुद्धि चेतनतत्त्वके स्वतंत्र अस्तित्वके निर्णयपर पहुँची है। तैत्तिरीय उपनिषद्में उल्लिखित विचारोंके अनुसार अन्न, प्राण तथा मनकी कई भूमिकाओंको पारकर और विज्ञान तथा आनन्दकी शाश्वत चेतनभूमिकाका स्पर्श करके उसके आधारपर मानवबुद्धिने आध्यात्मिक साधना भी शुरू की है; अर्थात् श्रवण तथा मननसे प्राप्त होनेवाले चेतन-अचेतनके परोक्ष विवेकज्ञानको प्रत्यक्षरूपसे आत्मसा करनेका अथवा उसे साकार करनेका प्रयत्न प्रारम्भ किया है।
१. सन्मतितर्क १.४३-४६ २. देखिये तैत्तिरीय उपनिषद्की ब्रह्मानन्दवल्ली ।