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हैन पत्रारत्व
तृतीय कालक्रम
प्रो. नरेन्द्र भानवत के बाद जिनवाणी को सुयोग्य हाथों में देने के लिए खोज की गई ताकि पत्रिका के स्तर को हानि न हो और इसकी लोकप्रियता बनी रहे । रत्नसंघ के अष्टम पट्टाधर अचार्य श्री हीराचन्द्र जी महाराज ने अपनी पारखी दृष्टि से विद्वानों पर नजर दौडाई तो उन्हें प्रो. धर्मचन्द जैन सभी दृष्टियों से एकदम उपयुक्त लगे । संस्कृतविद्, प्राकृतभाषाविज्ञ, सरल एवं शान्तस्वभावी डॉ. धर्मचन्द जैन ने आचार्यश्री की आज्ञा शिरोधार्य कर बहुत निपुणता से अपने कार्य को किया । उसी का परिणाम है कि आज जिनवाणी पत्रिका जैनपत्रिकाओं में अपनी विशिष्ट स्थान रखती है। जैन - अजैन सभी वर्ग के लोग इसे बडे चाव से पढते हैं और महीने के प्रारम्भ से ही नये अंक के आने का इन्तजार करते हैं ।
अक्टूबर 1994 से अद्यतन जिनवाणी पत्रिका के सम्पादन कार्य में युक्त प्रो. धर्मचन्द जैन जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के संस्कृत विभाग में आचार्य हैं। आप रत्नसंघ की कई संस्थाओं से जुडे हुए हैं । स्वाध्याय - शिक्षा के सम्पादन का कार्य आप जिनवाणी के सम्पादन से पूर्व सम्हाल रहे थे। कुछ वर्षों तक आपने 'जिनवाणी' और 'स्वाध्याय शिक्षा' दोनों पत्रिकाओं का सम्पादन किया। संघ समर्पित सुश्रावक डॉ. धर्मचन्द जैन ने आचार्य श्री हस्ती के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर 'नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं' वृहद् पुस्तक का लेखन किया। आप बहुप्रतिभा के धनी, सुलझे विचारों से युक्त, दृढ मनोबल, अध्यात्म विचारों से अनुप्रमाणिक श्रावक हैं।
डॉ. जैन ने पाठकों की मांग को ध्यान में रखते हुए 80 पृष्ठों की पत्रिका को 128 पुष्ठों तक बढा दिया। वर्तमान की आवश्यकताओं को देखते हुए हर प्रकार से नवीनता लाने का प्रयास सम्पादक द्वारा किया गया। अंग्रेजी स्तम्भ की भी शुरुआत की गई, जिससे मात्र अंग्रेजी जानने वाले पाठकों को भी इससे जुडने का मौका मिला। विदेशों में भी इसका स्वागत किया गया। डॉ. प्रियदर्शना जैन का अंग्रेजी में सामायिक व प्रतिक्रमण सूत्र व्याख्यासहित
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