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MMMMMMMMन पत्रहारत्व MMMMMMM मोह में मूल्यवान पत्रिकाओं का प्रारंभ किया यों कहूँ कि अपनी जैन पत्रिकाओं की दशा सुधरी पर दिशा बिगड़ गई।
यदि तटस्थ मूल्यांकन कहें तो ९८ प्रतिशत प्रत्रिकायें साधु-संतो के व्यामोह की उपज है तो पंथवाद का ही प्रतिनिधित्व करती है।
आज ३५० से अधिक पत्रिकायें विविध सामाजिकों के रुप में प्रकाशित हो रही है - पर वे जैन पत्रिकायें मिटकर सम्प्रदाय की पत्रिकायें बनकर रह गई हैं।
श्वेतांबर पत्रिकाओं को श्वेतांबरों के अलावा कोई समाचार या लेख नहीं मिलते तो दिगंबरों को उसके अलावा कुछ सूझता नहीं। हमारी ९८ प्रतिशत पत्रिकायें सम्प्रदाय, उपसंप्रदाय, गच्छों के बाद अब मुनिविशेष की पत्रिकायें या दुन्दुभिनाद करनेवाली बन कर रह गई हैं। जैनपत्रकारिता का दुर्भाग्य है कि वह साम्प्रदायिकता में विभाजित हुई तो हम भी उसीकी आँख से मूल्यांकन कर रहे हैं।
१९ वर्ष पूर्व मैंने व अन्य सम्प्रदायों के गुणीजनों ने संकल्प किया था कि एक जैनपत्रिका प्रारंभ हो। 'तीर्थंकर वाणी' का १९९३ में तीन भाषाओं के साथ प्रारंभ हुआ। में नहीं जानता कि मैं समन्वय में कितना सफल हुआपर मुझे आत्मसंतोष है कि मैं सम्प्रदाय से ऊपय उठने की कोशिश कर सका हूँ। अनेक वाचक मित्र, लेखक मित्र उसके साक्षी हैं। आज वह “शोध पत्रिका" बनी है उसमें जैनधर्म दर्शन के शोध लेख होंगे।
चूँकि आ. श्री बरवालियाजी ने किसी एक दिगंबर पत्र उसके संपादक, पत्र की विशेषता - इतिहास पर लिखने का आदेश दिया पर मैने चुनी हुई दिगंबर जैन पत्रिकाओं का विविध स्वरुपों में विभाजन करके प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।
(१) धर्म-संस्कृति संबंधी पत्रिकायें (२) जाति-उपजाति संबंधी पत्रिकायें (३) मुनियों की अपनी पत्रिकाये (४) तीर्थ संबंधी पत्रिकायें
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