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________________ ३६ ] वृत्तमौक्तिक याते दिवं सुतनये विनयोपपन्ने, श्रीचन्द्रशेखरकवौ किल तत्प्रबन्धः । विच्छेदमाप भुवि तद्वचसैव सार्द्ध , पूर्णीकृतश्च स हि जीवनहेतवेऽस्य ॥८॥ श्रीवृत्तमौक्तिकमिदं लक्ष्मीनाथेन पूरितं यत्नात् । जीयादाचन्द्रार्क जीवातुर्जीवलोकस्य ।।६।। रसमुनिरसचन्द्र विते (१६७६) वैक्रमेब्दे , सितदलकलितेऽस्मिन्कात्तिके पौर्णमास्याम् । अतिविमलमतिः श्रीचन्द्रमौलिवितेने , रुचिरतरमपूर्व मौक्तिकं वृत्तपूर्वम् ।।६।। यहाँ यह विचारणीय है कि द्वितीय-खंड का कितना अंश चन्द्रशेखरभट्ट ने लिखा है और कितने अंश की पूति लक्ष्मीनाथ भट्ट ने की है ? इसका निर्णय करने के लिये वृत्तमौक्तिक का अंतरंग आलोडन आवश्यक है। ग्रंथकार की शैली सूत्रकार की तरह संक्षिप्त शैली नहीं है, प्रत्येक छन्द का लक्षण कारिकारूप में न देकर उसी लक्षणयुक्त पूर्ण पद्य में दिया है जिससे छन्द का लक्षण और विराम स्पष्ट हो जाते हैं और वह लक्षण उदाहरण का भी कार्य दे सकता है । पश्चात् स्वयं रचित उदाहरण और प्राचीन महाकवियों के प्रत्युदाहरण दिये हैं । और दूसरी बात, तत्समय में या प्राचीन छन्दःशास्त्रों में प्रयोगप्राप्त प्रत्येक छन्द का लक्षण देने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार की शैली हमें द्वितीय-खण्ड के प्रथमवृत्तनिरूपण प्रकरण तक ही प्राप्त होती है । द्वितीय प्रकरण से छन्दों का संक्षिप्तीकरण दृष्टिगोचर होता है। कतिपय स्थलों पर छन्दों के लक्षण उदाहरण-स्वरूप न होकर कारिका-सूत्ररूप में प्राप्त होते हैं। और, उस कारिका को स्पष्ट करने के लिये स्वोपज्ञ टीका प्राप्त होती है, जो कि प्रथम प्रकरण तक प्राप्त नहीं है । साथ ही, पीछे के प्रकरणों में छन्दःशास्त्रों के प्रचलित छन्दों के भी लक्षण न देकर अन्य ग्रंथ देखने का संकेत किया है एवं कई उदाहरणों के लिये 'ऊह्यम्' कह कर या प्रथमचरण मात्र ही दिया है । अतः यह अनुमान कर सकते हैं कि प्रथम प्रकरण तक की रचना चंद्रशेखर भट्ट की है और द्वितीय प्रकरण से १वें प्रकरण तक की रचना लक्ष्मीनाथ भट्ट की है। किन्तु, तृतीय प्रकरण में 'प्रचितक' दण्डक का लक्षण छन्दःसूत्रकार प्राचार्य
SR No.023464
Book TitleVruttamauktik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishtan
Publication Year1965
Total Pages678
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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