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________________ भूमिका छन्द की परिभाषा करते हुए कात्यायन ने ऋक्सर्वानुक्रमणी में अक्षर के परिमाण को छन्द कहा है-यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः । अन्यत्र अक्षर-संख्या का नियामक छंद कहा गया है ।' छन्द का महत्व केवल अक्षर-ज्ञान कराना मात्र नहीं हैं । ऊपर के निर्वचनों पर विचार करने पर भावों को आच्छादित करके अपने में सीमित करने वाली शब्द-संघटना को साहित्य में छन्द कह सकते हैं । अर्थ को प्रकाशित करके अर्थचेता को आह्लादयुक्त कर देने में छन्द का छंदत्व प्रकट होता है। वैदिक छंद मंत्रों के अर्थ प्रकट करने की विशेष शैली प्रक्रिया के द्योतक हैं। वेदों के व्याख्याकारों ने इस बात पर जोर दिया है कि ऋषि, देवता और छंद के ज्ञान के बिना मंत्रों के अर्थ उद्भासित नहीं होते। देवता मंत्रों के विषय हैं, ऋषि वे सूत्र हैं जिनसे अर्थ सरलतया प्रकट हो जाते हैं और छंद अर्थप्राप्ति की प्रक्रिया का नाम है।' छंदों की अर्थ प्रकट करने की विशिष्ट प्रक्रिया के कारण हो वैदिक-शैली को 'छांदस्' कहा गया है। पारसी धर्म-ग्रंथ 'जेन्द अवस्ता' का जेन्द नाम भी छंद का अपभ्रष्ट रूप ज्ञात होता है। ___ ब्राह्मण ग्रन्थों में छांदस्-प्रक्रिया का बड़ा ही सूक्ष्म व रहस्यात्मक वर्णन देखने को मिलता है । वहाँ छंदों के नामों द्वारा सम्पूर्ण सृष्टि-प्रक्रिया को समझाने का प्रयत्न किया गया है । सब से अधिक रहस्यात्मक वर्णन गायत्री छंद का है जो सूर्यलोक से प्राप्त होने वाले सावित्री प्राण का प्रतीक बन गया है । छंदों का रहस्यात्मक वर्णन स्वतंत्र रूप से अनुसंधान का विषय है। यहाँ छंद के व्यावहारिक रूप पर ही विचार किया जा रहा है। ___ व्यावहारिक दृष्टिकोण से छंद अक्षरों के मर्यादित प्रक्रम का नाम है । जहाँ छंद होता है वहीं मर्यादा आ जाती है। मर्यादित जीवन में ही साहित्यिक छंद जैसी स्वस्थ-प्रवाहशीलता और लयात्मकता के दर्शन होते हैं । मर्यादित इच्छा की अभिव्यक्ति प्राचीन गणराज्यों की जीवन्त छंद परम्परा Voting Systems कही जाती है। भावों का एकत्र संवहन, प्रकाशन तथा आह्लादन छंद के मुख्य लक्षण हैं । इस दृष्टि से रुचिकर और श्रुतिप्रिय लययुक्त वाणी ही छंद कही जाती है १-छन्दोऽक्षरसंख्यावच्छेदकमुच्यते – अथर्ववेदीय बृहत्सर्वानुक्रमणी २-ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषि -बद्रीप्रसाद पंचोली, वेदवाणी; बनारस । १५५१ ३-वेदविद्या -डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, पृ० १०२ ४-प्राचीन भारत में गणतांत्रिक व्यवस्था -बद्रीप्रसाद पंचोली, शोधपत्रिका, उदयपुर, १५२१
SR No.023464
Book TitleVruttamauktik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishtan
Publication Year1965
Total Pages678
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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