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________________ ६.१५६-१७३] स्वयंभूच्छन्दः। जं सोडसटुचउदसठिअअं तं सीहवअं सत्तमे छआरे अमअं ॥१६९॥ [यच्छोडशाष्टचतुर्दशस्थितं तसिंहपदं; सप्तमे षण्मात्रे अमृतम् ॥ १६९ ॥] णवचं दसमतआरकअं अइदीहरअंचउदसदृसत्तारहसंठिअं॥१७० ॥ [नवचं दशमतकारकृतं अतिदीर्घक चतुर्दशाष्टसप्तदशसंस्थितम् ॥ १७० ॥] तं चिअदोछारपुरिमं तेहिं विरइअं जणपिअ(अं) मुण मत्तमाअंगअं॥ १७१॥ [तदेव द्विषट्कलपुरस्कृतं तैविरचितं जनप्रियं जानीहि मत्तमातंगकम् ॥ १७१ ॥] एआणं अहिअअरं मालाधर(धुव)अं भणंति कइवसहा ॥ १७२ ॥ [एतेषामधिकतरं मालाध्रुवकं भणन्ति कविवृषभाः॥ १७२॥] पंचंससारहूए बहुलत्थे लक्खलक्खणविसुद्धे ॥ एत्थ सअंभुच्छंदे दुवउप्पत्ती परिसमत्ता ॥ १७३ ॥ [पञ्चांशसारभूते बहुलार्थे लक्ष्यलक्षणविशुद्धे । . भत्र स्वयंभूच्छन्दसि द्विपदोत्पत्तिः परिसमाप्ता ॥ १७३ ॥]
SR No.023463
Book TitleSwayambhuchand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH D Velankar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishtan
Publication Year1962
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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