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________________ ५.८; थी. प. २१-३२] सवृत्तिके कविदर्पणे [दयितनखाङ्कुशसरसव्रणाङ्किते कञ्चुको मुखपट इव । तव मुतनु मदनमदकलकुम्भतटे शोभते स्तनभरे ॥ २६ ॥ ऋद्धिर्यथा बहलंधतमसघोरा रयणी छणतुहिणकरसणाहावि । पियसहि मणहरपियवयणविरहवियणाविहुरियाण ॥ २७ ॥ [बहलान्धतमोघोरा रजनी क्षणतुहिनकरसनाथापि । प्रियसखि मनोहरप्रियवदनविरहवेदनाविधुरितानाम् ॥ २७ ॥ कुमुदिनी यथा अणुहवसरसाणं विय अणुइवपरिणामपरममहुराण । अयि हियय विसयउवसमसुहाण उय अंतरं गहणं ॥ २८ ॥ [अनुभवसरसानामिवानुभवपरिणामपरममधुराणाम् । अयि हृदय विषय-उपशमसुखानां पश्यान्तरं गहनम् ॥ २८॥ धरणी यथा सुयणु तुय वयणरयणियरकिरणहठहरियविसमतमपसरे । नेहक्खयाय जइ जलइ जलउ दीवो रइहरंमि ॥२९॥ [सतनु तव वदनरजनिकरकिरणहठहृतविषमतमःप्रसरे । स्नेहक्षयाय यदि ज्वलति, ज्वलतु दीपो रतिगृहे ॥२९॥ यक्षी यथा सुसिलठविंटमरगयमणिमयसिरकलसविलसिरसिरीया । मयणनिवसिबिरवरजमलगुड्डुरा सुयणु तुह सिहिणा ॥ ३० ॥ [सुश्लिष्टवृन्तमरकतमणिमयशिरःकलशविलसच्छीको । मदननृपशिबिरवरयमलगुण्ठको सुतनु तव स्तनौ ॥३०॥ वीणा यथा न सुयइ न रसइ न जिमइ न हसइ न य ललइ नवि य उल्लवई। सा दियहं वरइ रुयइ नवरं तुह विरहदुहविहुरा ॥ ३१॥ [न स्वपिति न रसति न भुङ्क्ते न हसति न च ललति नापि चोलपति । सा दिवसं वृण्वती रोदिति केवलं तव विरहदुःखविधुरा ॥ ३१ ॥] वाणी यथा थुइमुहलविविहबुहनिवहमसलउलविहियबहलहलवोलं । परिचरइ कोवि मुणिरयणसूरिगुरुचरणसरसिरहं ॥ ३२॥ [स्तुतिमुखरविविधबुधनिवहभ्रमरकुलविहितबहलकलकलम् । परिचरति कोपि मुनिरत्नसूरिगुरुचरणसरसिरुहम् ॥ ३२॥
SR No.023461
Book Titlekavidarpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH D Velankar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishtan
Publication Year1962
Total Pages230
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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