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________________ यत्र भावः शिवं दत्ते, द्यौः कियद् दूरवर्तिनी। यो नयत्याशु गव्यूति, क्रोशार्धे किं स सीदति ? ।।४।। आत्मा के जो भाव मोक्ष प्रदान करने में सक्षम हैं उनसे स्वर्ग मिलना तो मामूली बात है। जो व्यक्ति किसी वज़न को दो कोस तक झटपट ले जा सकता है वह भला उसे आधे कोस तक ले जाने में क्या खेद मानेगा ? हृषीकजमनातक़ दीर्घकालोपलालितम्। नाके नाकौकसां सौख्यं, नाके नाकौकसामिव ।।५।। स्वर्ग में देवताओं को पाँच इन्द्रियों से जो निश्चिन्त और अबाध सुख मिलता है वह उन देवताओं की तरह ही दीर्घजीवी होता है। वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम्। तथा द्वेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि ।।६।। सांसारिक व्यक्ति तो उन इन्द्रिय सुखों की सिर्फ कल्पना ही कर सकता है। फिर विपत्ति के समय वे उसे रोग के समान दुःखी भी करते हैं। मोहेन संवृतं ज्ञान, स्वभावं लभते न हि। मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ।।७।। __ नशीले कोदों से उन्मत्त हुए व्यक्ति को पदार्थ का यथार्थ ज्ञान नहीं होता । इसी तरह मोह से आच्छादित ज्ञान को स्व-भाव की उपलब्धि नहीं होती।
SR No.023439
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year
Total Pages26
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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