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आचार्य पूज्यपाद कृत
इष्टोपदेश
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः । तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ||१||
मैं (पूज्यपाद) केवलज्ञान स्वरूप उन परमात्मा को नमन करता हूँ जिन्हें ख़ुद के सभी कर्मों का नाश हो जाने पर अपने आप ही स्वभाव की प्राप्ति हो गई है।
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योग्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता । द्रव्यादिस्वादिसम्पत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता ॥२॥
योग्य उपादान होने से स्वर्ण पाषाण स्वर्ण बन जाता है । इसी तरह स्व- द्रव्य ( स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) आदि उपादान हों तो आत्मा भी परमात्मा बन जाती है ।
वरं व्रतैः पदं दैवं, नाव्रतैर्बत नारकम् । छायातपस्थयोर्भेदः, प्रतिपालयतोर्महान् ॥ ३ ॥
व्रतों का पालन करके स्वर्ग पाना श्रेष्ठ है । अव्रतों के कारण नरक में जाना श्रेष्ठ नहीं है । व्रत अव्रत के परिपालकों में उतना ही बड़ा अन्तर है जितना छाया और धूप में अवस्थित व्यक्तियों में ।