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आज हम विकासदर और उपभोक्तावाद के फेर में अधिकाधिक धन कमाने के चक्कर में हैं। सोचते हैं कि त्याग और दान करेंगे, इसलिए भरपूर धन कमाया जाय। ऐसे लोगों को पूज्यपाद की मित्रवत् समझाइश है कि यह तो ऐसा ही है कि चूंकि स्नान करेंगे इसलिए शरीर पर कीचड़ लपेट लिया जाय । पूज्यपाद की दृष्टि तात्कालिक पर नहीं चिरन्तन और सनातन पर है। उनका समूचा चिन्तन पन्थ निरपेक्ष है। हम समझते हैं, उपभोगों की अति से मनुष्य जाति बहुत शीघ्र थक जाएगी और तब हमें पूज्यपाद की दृष्टि की ज़रूरत महसूस होगी ।
पूज्यपाद संक्षिप्ति और कसावट के रचनाकार हैं। उनकी कृतियाँ लघुकाय हैं और हर श्लोक स्फीति से मुक्त है। श्लोकों में ऐसा एक शब्द ढूँढ़ना भी कठिन है जो ग़ैरज़रूरी हो । उनके यहाँ मात्रा या वर्ण की ज़रूरत के लिए भी भर्ती के शब्द नहीं हैं।
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यह मेरा सौभाग्य है कि मैं पूज्यपाद की रचना समाधितन्त्र और इष्टोपदेश को हिन्दी में अनूदित कर सका। कोशिश की है कि पाठक अनुवाद के माध्यम से सीधे-सीधे पूज्यपाद तक पहुँच सकें। मेरा उद्देश्य मूल रचना को बिना किसी हस्तक्षेप के हिन्दी में प्रस्तुत करने का ही रहा है। अनुवाद करते वक़्त मुझे सदैव यह अहसास रहा है कि हस्तक्षेप करने की अपेक्षा हस्तक्षेप न करना ज़्यादा कठिन काम है ।
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जयकुमार जलज