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________________ qইনানা ईसा की पाँचवीं सदी में कर्नाटक प्रदेश के कोले नामक गाँव में श्रीदेवी और माधवभट्ट नामक माता-पिता से जन्मे पूज्यपाद का प्राथमिक नाम देवनन्दी था। बुद्धि की प्रखरता और प्रकर्ष के कारण शीघ्र ही उनका नाम जिनेन्द्रबुद्धि पड़ गया। कहा जाता है कि सर्प के मुँह में फँसे मेढक को देखकर उन्हें वैराग्य हुआ और उन्होंने जिनधर्म ही नहीं जिनदीक्षा भी ग्रहण कर ली। देवता उनके चरण पूजते हैं, इस जनविश्वास ने जिनेन्द्रबुद्धि को आगे चलकर पूज्यपाद के नाम से विख्यात कर दिया। आचार्य पूज्यपाद का समय कुन्दकुन्द और समन्तभद्र के बाद का है। उन दोनों के प्रभाव पूज्यपाद की रचनाओं में लक्षित होते हैं। पूज्यपाद ने अपनी बहुमुखी रचनाशीलता के चलते व्याकरण, छन्दशास्त्र, वैद्यक जैसे विषयों पर भी लिखा। उनके जिनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, इष्टोपदेश, समाधितन्त्र नामक ग्रन्थों को भरपूर प्रसिद्धि मिली। इष्टोपदेश ५१ श्लोकों की एक संक्षिप्त कृति है। आचार्य पूज्यपाद इसमें बहुत स्नेह से हमारा ध्यान जीवन की आध्यात्मिक और बुनियादी ज़रूरतों की ओर आकर्षित करते हैं। अपने (स्व-भाव) और पराए (पर-भाव), ज़रूरी और गैरज़रूरी में फर्क करने की उनकी दृष्टि एकदम साफ है। उनका कथन है - जीव यानी आत्मा और पुद्गल यानी शरीर को अलग-अलग समझना ही बुनियादी बात है। इसके अलावा जो भी कुछ और कहा जाता है वह इसी बुनियादी बात का विस्तार है। वे दान, त्याग, व्रतों आदि का विरोध नहीं करते । पर उन्हें एक ऐसे रास्ते के रूप में निरूपित करते हैं जो हमें सिर्फ थोड़ी ही दूर ले जाने में समर्थ है। वह हमें अधिक से अधिक स्वर्ग तक ले जाकर छोड़ देता है। इसके विपरीत आत्मभाव में स्थिर और केन्द्रित होने की स्थिति हमें मोक्ष तक ले जाती है। मोक्ष ही पूज्यपाद का लक्ष्य और गन्तव्य है। इसी की संस्तुति वे तमाम प्राणियों से करते हैं।
SR No.023439
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year
Total Pages26
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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