SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्यागाय श्रेयते वित्तमवित्तः सञ्चिनोति यः । स्वशरीरं स पङ्गेन, स्नास्यामीति विलिम्पति ।।१६।। जो व्यक्ति त्याग (और दान) करने के लिए धन जोड़ने में लगा हआ है वह इस विचार से कि स्नान करूँगा, अपने शरीर पर कीचड़ लपेट रहा है। आरम्भे तापकान् प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान्। अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः ।।१७।। भोगविलास शुरू में सन्ताप देते हैं और अतृप्ति को बढ़ाते हैं। अन्त में उन्हें छोड़ना भी मुश्किल हो जाता है। कौन बुद्धिमान व्यक्ति ऐसे भोगविलास का सेवन करेगा ? भवन्ति प्राप्य यत्सङ्गमशुचीनि शुचीन्यपि। स कायः संततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा ।।१८।। जिस शरीर के संसर्ग से पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं और जो नश्वर भी है भला कौन ऐसे शरीर की कामना करेगा ? यज्जीवस्योपकाराय, तदेहस्यापकारकम् । यद्देहस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम् ।।१९।। आत्मा का उपकारक देह का अपकारक होता है और देह का उपकारक आत्मा का अपकार करता है।
SR No.023439
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year
Total Pages26
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy