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________________ ६८ - तत्त्वोपनिषद् - जइ तं तहा पुरिल्लो दाइतो केण जिव्वंतो ? इति (सम्मतौ ३ -६८) एवं विभजनमन्तरेण यदेव वस्तुनि विद्यमानमपि नित्यत्वादि साध्येनोच्यते तदेवानित्यत्वादिरूपप्रतिपक्षसाधनप्रेरकीभूयान्यत्र प्रतिवादिनि विजयं सन्दधाति - सुखेनैव तद्विजयं तनोतीति ॥ ३१।। अथोपसंहरन्नाहमया तावद् विधिनाऽनेन शास्ता, जिनः स्वयं निश्चितो वर्द्धमानः । `सन्धास्यत्याप्तवत् प्रतिभानि, स नो जांड्यं भंस्यते पाटवं चेति।।३२।। मया तावदनेन मध्यस्थदृशा परीक्षणात्मकेन विधिना स्वयमन्यबलाभियोगाद्यन्तरेणैव वर्द्धमानो जिनः शास्ता मदनुशासकत्वेन करता है, उसे समज़ कर यदि वादी उसका प्रतिक्षेप ही न हो सके इस तरह साध्य का प्रतिपादन करे, तो उसे कौन जीत सकता है ? ।।३-५८।। - मगर इस तरह विवेकपूर्वक प्रतिपादन न करके, वस्तु में विद्यमान ऐसा भी जो नित्यत्वादि साध्य से कहा जाता है, उससे ही प्रतिवादी को उससे विपरीत धर्म अनित्यत्वादि को सिद्ध करने की प्रेरणा मिलती है, वो वादी के साध्य का प्रतिक्षेप कर देता है, और यथासंभव विजय प्राप्त कर लेता है ||३१|| - अब उपसंहार करते है मैंने तो इस विधि से स्वयं निश्चय किया है, कि 'श्री वर्द्धमान जिन मेरे शासक हो।' जो आप्त की तरह हमारे ज्ञान को प्रकट करेंगे, हमारी अज्ञानता एवं चंडता का वे भंग करेंगे ||३२|| मैंने तो ऐसी मध्यस्थ दृष्टि से परीक्षण करने की विधि से किसीकी जबरदस्ती के बिना स्वयं ही श्री वर्द्धमान जिनको मेरे शासक के रूप १. ख- ०ना तेन । २. ख- सन्धाय व्याप्तवत्प्राति० । ३. क, ख - ०ड्यं मंस्यते ।
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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