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________________ तत्त्वोपनिषद् - यथाधर्मं यस्तु साध्यं विभज्य, गमयेद् वादी तस्य कुतोऽवसादः ? यदेव साध्येनोच्यते "विद्यमानं, तदेवान्यत्र विजयं सन्दधाति ||३१|| यथाधर्ममित्यादि। स्वप्रतिजिज्ञासितधर्मरूपसाध्यं यथाधर्मं वस्तुनि विद्यमानान्यधर्मानतिक्रमेण तत्प्रतिक्षेपपरिहारपुरस्सरं विभज्येत्येतदपेक्षयाऽयं धर्मः सिसाधयिषित इति सम्यग् विभागं कृत्वा यस्तु वादी गमयेत् प्रतिपादयेत् तस्य कुतोऽवसादः ? कस्मात्पराजयः ? न कुतश्चिदसम्भवात् । तथाऽऽहाऽन्यत्र उविस ओवणीअं जह वयणिज्जं परो नियत्तेइ । - ६७ — जो वादी धर्म के अनुसार साध्य का विभाग कर के ( उस का) ज्ञान कराता है, उस का पराभव कैसे हो सकता है ? जो ही साध्य से विद्यमान रूप से कहा जाता है, वो ही अन्यत्र विजय का सम्यक् संबंध कर देता है ||३१|| जो वादी वस्तु के अन्य धर्म का प्रतिक्षेप किये बिना, इस अपेक्षा से मैं यह धर्म को सिद्ध करना चाहता हूँ, इस तरह विवेक से जो वादी प्रतिज्ञा करता है, उसे कौन हरा सकता है ? कोई भी नहीं, क्योंकि उसका पराजय असम्भवित है। 'आत्मा केवल नित्य ही है, अनित्य है ही नहीं' ऐसा कहने के बजाय आत्मा का कभी भी सर्वथा विनाश नहीं होता इत्यादि पूर्वोक्त अपेक्षा से ही आत्मा नित्य है, मनुष्यत्व आदि पर्यायों की अपेक्षा से वो अनित्य भी है, ऐसा प्रतिज्ञा करे तो भला कौन इसकी बात का प्रतिक्षेप कर सकता है ? यही बात मूलकार ने सम्मति नाम के अन्य प्रकरण में कि है हेतु के विषयस्वरूप प्रतिपादित साध्य को जिस तरह परवादी दूषित १. क - विद्यामानम् ।
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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