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________________ 8- तत्त्वोपनिषद् - ६५ एवं च समानतयाऽनन्तधर्मा उपहिताः- सम्बद्धा यत्रेति समानधर्मोपहितं वस्तु, गौणेतरभावस्याऽऽपेक्षिकत्वात् । तदेवाऽऽह विशेषत इत्यादि। तथा चार्पितानर्पितसिद्धेरविशेषविवक्षायां तदेवात्मादि वस्तु नित्यम्, अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिररूपत्वात्, कालत्रयेऽपि व्ययविरहात्, तदेव चात्मादि वस्तु विशेषविवक्षायामनित्यम्, नृनारकादिपर्यायपरिवर्तित्वात्। एवं चात्मादिविषयकनित्यत्वेतराभिप्रायकवादकथानिवर्तनम्। अन्यथा तु तदसम्भवः, एतदेवाह-अतोऽन्यथा वादिनः न प्रतरन्ति, न वादकथार्णवं प्रकर्षेण सधुक्तिपोताश्रयेण तरन्ति, मिथ्याभिनिवेशसचिवकुतर्कबलेन कथञ्चित् प्रतिवादिजेतारोऽपि न वादकथायां सम्यग् निर्णयं प्राप्नुवन्ति स्वयमप्यतरह उसमें अनित्यता आदि अनन्त धर्म भी है। इस तरह जिसमें समान रूपसे अनन्त धर्म सम्बद्ध है,ऐसी समानधर्मोपहित वस्तु में विशेष की विवक्षा न करे तो वो वस्तु नित्य है, क्यूँ कि कभी भी उसका अत्यन्ताभाव नहीं होता, तीनों काल में कभी भी उसका व्यय नहीं होता, कभी भी ऐसी स्थिति नही होती कि उस वस्तु का एक भी पर्याय विद्यमान न हो। इस तरह कभी भी वो वस्तु नष्ट नहीं होती और कभी भी उत्पन्न नहीं होती। इस लिये नित्य है। अब जब विशेष की विवक्षा करे तब वो आत्मादि वस्तु अनित्य है, क्यूँ कि वो मनुष्यादि पर्यायों के रूप में उत्पन्न होती है और विनष्ट भी होती है। इस तरह वो अनित्य है। इस तरह 'आत्मा नित्य है या अनित्य है' इत्यादि विषयवाली वादकथा की सुखद समाप्ति हो जाती है। अन्यथा तो परीक्षा भी प्रश्न बन जाये और वादकथा की कभी भी समाप्ति न हो पाये। इसी लिये कहते है कि अन्यथा वादीओं वादकथारूप समुद्र का पार नही पा सकते। कभी युक्तिरहित प्रतिज्ञा को भी कुतर्कों के बल से सिद्ध करके परवादी कों जीत भी ले, मगर यह वास्तविक विजय नहीं, क्योंकि
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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