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________________ ६४ - तत्त्वोपनिषद्किमप्यस्याजितं नास्तीत्यभिप्रायः, न गम्यत इत्यादेरेव पुरातनानुरागिक्षुद्रमृगवृन्दसिंहनादायमानत्वादिति ।।२९।। ___ एतादृशोऽपि परीक्षकस्य भिन्नदर्शनसिद्धान्ताध्ययन एकविषयकविरुद्धधर्माभिप्रायोऽवश्यं ज्ञास्यते, स एव प्रायो वादहेतुः, तथा चात्र कथं परीक्षासाफल्यं वादोपरतिर्वेत्यत्राह - समानधर्मोपहितं विशेषतो विशेषतश्चेति कथा निवर्तते । अतोऽन्यथा न प्रतरन्ति वादिन स्तथा च सर्वं व्यभिचारवद् वचः।।३०।। यथाऽऽत्मप्रभृतिवस्तुनि नित्यत्वादिरेको धर्मस्तथैवानन्तधर्मा अपि, में परीक्षक के जो 'न गम्यते' उद्गार कहे है, वे भी सिंहनाद जैसे है, जिससे पुरातनप्रेमीओं हिरण की तरह काँपने लगते है। महापुरुषों को उन्हें जीतने का भी कष्ट नहीं लेना पड़ता, फिर उनके लिये अजित क्या हो सकता है। ।।२९।। ___ ऐसे महात्मा भी परीक्षा के लिये नाना दर्शनों के सिद्धान्तों का अध्ययन करे तब उन्हें एक ही विषय में तरह तरह के अभिप्राय जानने मिलेंगे, हर अभिप्राय के अपने अपने प्रबल तर्क होंगे, ऐसे नाना अभिप्रायों से हि ज्यादातर वादों का निर्माण होता है, फिर तो वो परीक्षक स्वयं उलझन में पड़ जायेगा, तब तो परीक्षा ही निष्फल हो जायेगी और प्रबल तर्कों से वाद की भी समाप्ति नही होगी, इस लिये आपका यह सारा भाषण व्यर्थ है - इस बात का समाधान करते है समान धर्म से उपधानप्राप्त विशेष से एवं अविशेष से, इस तरह कथा समाप्त होती है। इस से अन्य प्रकार से वादिओं (कथा का) पार नहीं पा सकते, एवं इस तरह सर्व वचन व्यभिचारयुक्त है।।३०।। आत्मा आदि सर्व वस्तु में जैसे नित्यतारूप एक धर्म है, उसी
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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