SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ -तत्त्वोपनिषद्-४ न च गौरवमेव दुष्टमिति मे मतिः, किन्तु तबीजविवेक आवश्यक इति स्पष्टयतिन गौरवाक्रान्तमतिर्विगाहते, किमत्र युक्तं किमयुक्तमर्थतः। गुणावबोधप्रेभवं हि गौरवं, कुलाङ्गनावृत्तमतोऽन्यथा भवेत्।।२८।। पुरातनस्वाभिमताप्तविषयं गौरवं - पूज्यबद्धिः, तेनाऽऽक्रान्ता समन्ताद् व्याप्ता मतिर्यस्येति गौरवाक्रान्तमतिः, तत एव निर्विवेको न विगाहते - न विवेचयति यत् किमत्र-स्वपरसिद्धान्ते अर्थतो युक्तमुचितं युक्तिसहमयुक्तं वा। शब्दतस्तु सर्वमप्यविचारितरम्यमित्यर्थत इत्युक्तम्। तत्त्वजिज्ञासा एवं तत्त्वानुराग के बिना सम्भवित नहीं।।२७।। पुरातनों पर गौरव रखना यही दुष्ट है, ऐसा मैं नही कहता। किन्तु गौरव कहाँ करना, और कहाँ नही, इसका विवेक आवश्यक है। यही कहते है - गौरव से आक्रान्त मतिवाला 'यहाँ क्या अर्थ से युक्त है और क्या नही' यह नहीं सोचता। (तात्त्विक) गौरव तो गुणों के ज्ञान से ही उत्पन्न होता है। और इससे भिन्न तो कुलाङ्गना का वृत्त बन जाएगा ||२८|| पुरातन - अपने माने हुए आप्त के उपर गौरव - पूज्यबुद्धि से जिसका हृदय भर गया है, वो सोचे बिना ही उनके वचन पर श्रद्धा कर लेता है। उस गौरव से भरे हृदय में विवेक की तनिक भी जगह नहीं रहती, इस लिये वो इस बात पर ध्यान ही नही देता कि इस वचनों में क्या युक्त है? क्या युक्तिसंपन्न-उचित-यथार्थ है और क्या अयुक्त है ? क्या युक्तिरहित एवं अनुचित है ? यह विचार १. ख- ०क्रान्तिमति०। २. क- प्रतिवं ।
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy