SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वोपनिषद् - अस्यैवोदितमादरणीयं चेत्यत्राह - किं कुशलोज्झिता वयम् ? तथा कृते च वयं कुशलम् -क्षेमम्, कल्याणमिति यावत्, तेनोज्झितास्त्यक्ता एव स्युः, विफलत्वादस्थानाभियोगस्येति हृदयम् । कस्तर्हि भवतोऽभिसन्धिरित्यत्राह, अत्र जगति यो गुणोत्तरो यथार्थवादितादिगुणैः सर्वापेक्षया श्रेष्ठः, स आप्तो अस्माकमनुशासिता - हितशासकः शिवमार्गदर्शको भवतु - इत्येव ममाशयः । - - तदेवं तत्त्वान्वेषिस्फुटाभिप्रायमुक्त्वा तदितरैस्तुलनां करोति - अल्पचेतसां मन्दधियां – हीनसत्त्वानामिति यावत्, एषोऽनन्तरोदितो मनोरथोऽपि तदनुरूपक्रियाशून्योऽभिलाषोऽपि कुतः ? न कुतश्चित् तन्मनोरथस्यापि तत्त्वरुचिहेतुकत्वादित्यभिप्रायः।। २७ ।। है, देखो, ज्यादा भाषण मत करो, जैसे भी हो यही हमारे परमेश्वर है, सर्व प्रकार से हमे उनकी ही आराधना करनी है, उनके ही वचन का आदर करना है। सत्यप्रेमी जवाब देता है क्या मैं कुशलोज्झित हूँ ? क्या मुझे कल्याण से दूर जाना है ? क्योंकि ऐसा करने पर कल्याण मुझे छोड़ देंगे। मैं सही राह को जानते हुए भी उन्मार्ग पर चलकर दुःखी होना क्यूँ चाहूँ ? ये मुज़से हरगीझ नहीं हो सकता । निराश हो कर पुरातनप्रेमी उसे पुछते है कि, तो अब तुम क्या चाहते हो ? परीक्षक मक्कमता से कहता है - जो गुणोत्तर हो - अपनी युक्तिसंपन्नता - यथार्थवादिता आदि गुणों से सारे विश्व में श्रेष्ठ हो वही मेरे अनुशासक हो, वही मेरे कल्याण के मार्गदर्शक हो, वही मेरे आराध्य परमेश्वर हो, यही मेरी भावना है, यही मेरा निश्चय है। दिवाकरजी कहते है, तत्त्वरुचिका यह जो अभिप्राय है, जो निश्चय है, ऐसा मनोरथ भी मंदबुद्धि का नहीं हो सकता। तत्त्वमार्ग पर जाने की बात तो दूर रही, उसकी अभिलाषा भी जड़ और सत्त्वहीन जीवों के लिये नामुमकीन है। क्यूँ कि ऐसी अभिलाषा भी माध्यस्थ्य, -
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy