SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ®- तत्त्वोपनिषद् - ५३ गुर्वादिलज्जयाऽपयशोभीत्या वाऽऽदृतापरिहारोऽल्पसत्त्वतालिङ्गम्। त्रितयमेतत् तत्त्वसञ्चरसञ्चरणान्तराय इति।।२५।। तादृशकृतज्ञतादिमतः परीक्षाऽपि दोषायेत्याह - इदं परेषामुपपत्तिदुर्बलं, कथञ्चिदेतन्मम युक्तमीक्षितुम्। अथात्मरन्ध्राणि च सन्निगूहते, _ हिनस्ति चान्यान् कथमेतदक्षमम् ?||२६।। परीक्षायामपि पक्षपातिन एतादृशविमर्शः-यदुतेदं स्थानं परेषां सिद्धान्ते उपपत्तिदुर्बलम् - युक्त्यक्षमम्, किं सर्वथा ? नेत्याह कथञ्चित्, इदमुक्तं भवति, येन केनापि प्रकारेणात्रोपपत्तिदुर्बलता, ततश्चैनामन्वेष्य मया ते या अपयश का, मगर वे तत्त्व के मार्ग पर नहीं आ सकते - यह है अल्पसत्त्वता। इस तरह कृतज्ञता, जड़ता और अल्पसत्त्वता तत्त्वप्राप्ति में विघ्न बन जाते है।।२५।। ये तीन विघ्न से बाधित व्यक्ति कभी परीक्षक बनने जाय तो भी दोष का ही सेवन करता है, यह कहते है - परवादीओं की यह बात कथञ्चित् युक्तियुक्त नहीं है। मुझे इस पर विमर्श करना चाहिए। इस तरह अपने मत के दोषों को छिपाता है और दूसरों के शास्त्रों का प्रतिक्षेप करता है। यह कैसा मात्सर्यपूर्ण व्यवहार !||२६|| __वह परीक्षक बनके परदर्शनों का थोडा-बहुत अभ्यास करता है और सोचता है कि परवादीओं की ये बात कथञ्चित् युक्तिविकल मालूम होती है, विचार करने पर यह बात तूट कर चकचूर हो जाती है। तो मुझे इस पर विमर्श करना चाहिए, इस बात को गौर से देखना उचित है। ऐसा सोचके परवादीओं के प्रतिक्षेप को ध्येय बना कर परीक्षा के बजाय विवाद में उपयोगी दोषान्वेषण में मग्न हो जाता है।
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy