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________________ - तत्त्वोपनिषद् नैवं किमपि फलमन्यत्र सङ्क्लेशादिति तत्त्वान्वेषणमेव श्रेय इति तद्विषयमुपदर्शयन्नाह - अवश्यमेषां कतमोऽपि सर्ववि ज्जगद्धितैकान्तविशालशासनः। स एष मृग्यः स्मृतिसूक्ष्मचक्षुषा, तमेत्य शेषैः, किमनर्थपण्डितैः?||२३।। एषामिति बुद्धिस्थसर्वदर्शनप्ररूपकाणाम्, तेषां मध्ये कतमोऽपिकोऽप्येक एव सर्वज्ञः, परस्परविरोधेऽन्यतमस्यैव तत्त्वसम्भवात्। किमस्य लक्षणमित्यत्राह - जगद्धितैकान्तम्- विश्वकल्याण एवैकोऽन्तो निश्चयो यस्य तत्। तथा विशालं शासनं यस्य सः। विशालमिति विस्तीर्णम्। विवाद भी शाश्वत ही होगा और यह उन लोगों के अनुरूप ही है।।२२।। इस तरह विवाद करने में कोई भी फल नही, सिवाँ कि सङ्क्लेश। इस लिये विवाद छोड़कर तत्त्व की खोज़ करे यही श्रेयस्कर है। यह खोज़ कैसे करनी उस पर दिग्दर्शन करते है - ____ अवश्य इन में से ही कोइ एक सर्वज्ञ है, जिस के शासन में विश्वकल्याण का निश्चय है, जिस का शासन विशाल है। स्मृति और सूक्ष्मदृष्टि से इस सर्वज्ञ का अन्वेषण करना चाहिये। उसे पाकर, अवशिष्ट, अनर्थ करने में निपुण, ऐसे जनों का क्या काम है ?।।२३।। ___ हमारे सामने जगत के सभी दर्शन के प्रणेताओं खड़े है ऐसा ध्यान करो। ये सभी महानुभावों को देखो। बस, इन्ही महानुभावों में से एक ही सर्वज्ञ है, यह बात निश्चित्त है क्यूँ कि परस्पर विरोध होने से एक ही तत्त्व(सत्य) हो सकता है। सर्वज्ञ ही विश्व का कल्याण करता है। उसका ही शासन विश्व में हितकर है, और उनके शासन ने हि जगत का हित करने का एक मात्र निश्चय किया है। (एक ही है अन्त = निश्चय जिसका वह एकान्त।) यही शासन विशाल है
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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