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________________ -तत्त्वोपनिषद्विभिन्नाभिप्रायाः, मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्नेति नीत्या। ते च सर्वेऽपि सर्वज्ञंमन्या महत्त्वाकाङ्क्षिणोऽभिमानमथिताः सन्मानेच्छवश्व स्वमेवोत्कृष्टं ख्यापयन्तस्तत्त्वविमुखाः परेषु स्वाभिप्रायाङ्गीकारणबद्धकक्षाः परस्परविरुद्धमुत्थिताः - वाक्सङ्ग्रामसज्जास्तावद् विवदेयुरेव। स च विवादो व्यर्थः, अन्यतमस्यापि जयेच्छानिवर्तनपराजयस्वीकारयोः कल्पान्तेऽप्यसम्भवात्। अथैवं स्थिते भवन्त एव दिशन्तु - कथयन्तु, यदि भवतां मध्ये कोऽपि लब्धा- तत्त्वावगमलाभवान् तत्त्वज्ञ इति यावत्। यद्यत्र कोऽपि विस्मयः, किमप्यत्राऽऽश्चर्यम्, एतादृक्परिस्थितौ तु व्यर्थः सदातनश्च विवाद एव, नान्यत् किञ्चित् - इत्येषामनरूपमेवेति।।२२।।। तरतमता से किसीकी जघन्य, किसीकी मध्यम और किसीकी उत्कृष्ट मेधाशक्ति होती है। मगर सब खूद को सर्वज्ञ मानते है, सबको महान दिखलाना है। सबको अभिमान है, सन्मान पाने की कामना है, और एक दुसरे के विरोध में खड़े होकर बेकार का विवाद-झगडा करते रहते है। किन्तु विवाद व्यर्थ है क्यूँ कि दोनों को जितना ही है और पराजय का स्वीकार करना ही नही है। कल्पान्त में भी वे अपने इस निश्चय से पीछे हट नहीं करना चाहते। __ वे खूदको ही महान कहते है, तत्त्व से विमुख है, दुसरों को अपना अभिप्राय स्वीकार कराने में मश्गुल है। कैसी विचित्रता ! आप ही बताइये, यदि आपमें कोइ लब्धा - तत्त्वज्ञानी हो। क्या ऐसा विवाद हो उसमें कोई आश्चर्य है ? जहाँ हर कोई अपने आपको सर्वज्ञ ही समझते हो और एक दुसरे पर अपनी बात ठोक ठोक के बिठाने की अभिलाषा और प्रयत्न हो। तत्त्व की कोइ परवा न हो और सबको ही नायक बनना हो, उस परिस्थिति में विवाद के अलावा और हो भी क्या सकता है ?
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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