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________________ - तत्त्वोपनिषद् - शतैरितस्ततो विलुप्यते, तद् व्यर्थो नृपादेर्भर्तृत्वमदः, धिक् च धर्मम् । विसंवादापन्नान्तःकरणबाह्याचारवत्त्वमिति शठत्वम्। स्वमुखनिर्गतैर्वचनैः स्वपरानर्थं कुर्वन्तीति हेतौ फलारोपादनर्थों मुखाद् मुखे वा येषामित्यनर्थमुखाः।।१५।। तदिदं मुग्धजगति शाठ्यम्, अधुना तत्त्वज्ञसकाशे तदाहयदा न शक्नोति विगृह्य भाषितुं, ३६ परं च विद्वत्कृतशोभमीक्षितुम् । अथाप्तसम्पादितगौरवो जनः, इसे व्यक्तिस्वातन्त्र्य कहना यह तो गुंडागर्दी को व्यापार कहने जैसा है। इस तरह यह दयापात्र जगत शठों के द्वारा चारों और से लूटा जा रहा है। उन शठों के वचन अनर्थकारि है। मानो के उनके मुख से अनर्थ ही नीकलते है। अन्दर कुछ और बहार कुछ वही तो शठता है। तत्त्व को जानते हुए भी मिथ्या प्ररूपण करे उससे बड़ा शठ कौन हो सकता है ? धर्म के मोहरे को धिक्कार हो, यह तो धर्म के नाम पर कलह दीप्त होता जाता है। सच मुच...... मैं पालनहार हूँ, ऐसा घमंड रखना किसी के भी लिए योग्य नहीं । मूल श्लोक में रहे 'अनर्थमुखैः' के दो अर्थ हो सकते है (१) खूद के मुख से निकले हुए वचनों से स्व और पर का अनर्थ जो करते है, वे अनर्थमुख । इस व्युत्पत्ति में हेतु में फल का उपचार किया गया है मुख से - मुख में जिन्हों के, वे अनर्थमुख ||१५|| है। (२) अनर्थ यह तो भोले जगत के साथ जो चालबाझी करते है वो कहीं, अब जो तत्त्ववेत्ताओं के पास करते है वो बताते है -: — जभी तत्त्वज्ञ के साथ वाद करने में असमर्थ होता है, विद्वानों ने रचे हुए शास्त्रों को देखने में असमर्थ होता है ( तभी ) अपने मानें
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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